महान लक्ष्य के लिए किया गया बलिदान कभी व्यर्थ नही जाता, ऐसी सोच रखने वाले सावरकर क्यों हमारे देश के सबसे विवादीद व्यक्ति बन गए। आज हम उनकी ज़िंदगी के साथ उनसे जुड़े विवादों की सच्चाई पर बात करेंगे। साथ ही हम जानेंगे कि क्यो आज भी सावरकर को लोगों का प्यार और तिरस्कार दोनों झेलना पड़ता है।
28 मई, 1883 को सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के भागरू नामक गांव में दामोदर और राधा बाई सावरकर के घर में हुआ। अपने माता पिता को छोटी उम्र में खो देने के कारण विनायक बचपन में ही समझ गए थे की उनका जीवन आसान नहीं रहने वाला है। सावरकर ने अपनी primary schooling शिवाजी स्कूल, नासिक से की। बचपन से ही उन्हें राइटिंग और पॉलिटिक्स में रुची रही। उन्होंने अपनी पहली कविता 10 साल की उम्र में लिखी थी। जिसको पुणे के एक लोकल पेपर में पब्लिश किया गया था।
वीर सावरकर नाम रखने की कहानी
उनके पिता बहुत ही स्ट्रिक्ट और रिलिजियस थे जिस वजह से बचपन से ही सावरकर ने ने रामायण और महाभारत ग्रंथ पढ़ना शुरू कर दिया था। और यही से जागा था उनका हिंदुत्व का जुनून। दुनिया को महज 12 साल की उम्र में सावरकर की क्रांतिकारी विचारों की एक झलक देखने मिल गई थी। जब अपने ही गांव में हिंदू मुस्लिम राइट्स के दौरान घायल हुई हिंदुओं का नेतृत्व सावरकर ने किया। इसी इंसिडेंट के बाद में गांव वालों ने उन्हें वीर सावरकर के नाम से बुलाना शुरू कर दिया।
पैंसों की तंगी की वजह से रूकी थी पढ़ाई
सावरकर अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा बाल गंगाधर तिलक और अपने बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर से प्रभावित रहे। सावरकर बाल गंगाधर तिलक को अपना गुरु मानने लगे और उनके द्वारा शुरू किए गए गणेश उत्सव का आयोजन अपनी स्कूल और गांव में करने लगे। साल 1901 में सावरकर की जीवन में यमुनाबाई आई, जिनसे उनका विवाह हुआ। समय के साथ-साथ सावरकर का एजुकेशन और राइटिंग को लेकर जुनून बढ़ता जा रहा था। लेकिन पैसों की दिक्कत की वजह से आगे की पढ़ाई कर पाना मुश्किल नजर आ रहा था। यहां यमुनाबाई ने सावरकर का साथ निभाया और अपने पिता से कहकर सावरकर का एडमिशन का फर्गुसन कॉलेज पुणे में करवाया। कॉलेज में कदम रखते ही सावरकर पॉलिटिक्स में सक्रिय हो गए। आईए जानते हैं उनके आगे के सफर के बारे में।
तिलक द्वारा लगाई गई आजादी की चिंगारी अब सावरकर के दिमाग में एक आग बन चुकी थी। साल 1903 में अपने बड़े भाई गणेश के साथ मिलकर सावरकर ने एक सीक्रेट समिति मित्र मेला का गठन किया। ऐसे ही आगे चलकर 1906 में अभिनव भारत सोसायटी का दर्जा मिला। वही 1905 में जब स्वदेशी मूवमेंट का आगाज़ हुआ सावरकर देश के उन्हें चंद्र व्यक्तियों में शामिल हुए जिन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई और देखते ही देखते यह होली देश के कोने-कोने में जलने लगी।
सावरकर ने देश से दूर एक और समिति का निर्माण किया जिसका नाम फ्री इंडिया सोसाइटी रखा गया सोसाइटी में पॉलिटिकल प्रॉब्लम्स और इंडिया के फ्रीडम पर डिस्कशन किए जाते थे। धीरे-धीरे सावरकर की देशभक्ति में फिर से उबाल आने लगा। देश और उनके बीच की दूरी उन्हें रोकने में असमर्थ दिखाई दी जब उन्होंने लंदन से इंडिया में बम मैनुएल्स सप्लाई करना शुरू किया, इन्हीं सोसाइटी की मीटिंग में सावरकर की मुलाकात मदनलाल ढींगरा से हुई। ढींगरा सावरकर की स्पीशीज से काफी प्रभावित थे जिसके चलते दोनों के बीच जल्द ही काफी गहरी दोस्ती हो गई। और इसे दोस्ती का धमाका 1 जुलाई 1909 के दिन पूरी दुनिया ने सुना।
10 साल काला पानी की जेल में कटे
13 मार्च 1910 को लंदन में कदम रखते ही उन्हें अरेस्ट कर लिया गया। ब्रिटिश ऑफीसर्स सावरकर को लेकर मौर्य नामक शब्द में लेकर इंडिया पहुंचे। पर सावरकर इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे जैसे ही ब्रिटिश शिव मार्शल पोर्ट पर पहुंच सावरकर सबसे भाग निकले। सावरकर ने फ्रांस की धरती पर कदम रखते ही फ्रेंच गवर्नमेंट से पॉलीटिकल एसाइलम की डिमांड की। सावरकर को कानून का ज्ञान था वह जानते थे कि किसी फॉरेन कंट्री में अरेस्ट को एवेड करना उनके लिए आसान होगा। अब सवाल यह खड़ा हुआ केसावरकर का असली हकदार कौन फ्रेंडशिप ब्रिटिश यह कैसे परमानेंट कोर्ट का आर्बिट्रेशन तक पहुंच गया। हालांकि कुछ महीनो बाद कोर्ट का फैसला ब्रिटिशर्स के हक में आया और सावरकर को आखिरकार भारत लाया गया। साल 1911 4 जुलाई को ब्रिटिश इंडियन कोर्ट में 28 साल के सावरकर को क्षेत्र 121 ए आईपीसी कंस्पायरेसी अगेंस्ट ब्रिटिश क्राउन के तहत 50 साल काले पानी की सजा सुनाई गई। और सेल्यूलर जेल अंडमान भेज दिया गया। सावरकर 1924 6 जनवरी के दिन काफी संघर्ष के बाद जेल से बाहर आए। फिर भी ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को 1937 तक रत्नागिरी में कन्फाइनमेंट में रखा था। जो ब्रिटिश हुकूमत में सावरकर के ख्वाब को साफ-साफ दर्शाता है।
सावरकर ने पॉलिटिक्स के साथ आजादी के लिए कलम का भी बखूबी इस्तेमाल किया। The Indian war of independence 1857 नामक किताब 1909 में लिखि जिसने उसे वक्त की क्रांतिकारी के लिए एक ग्रंथ का रूप ले लिया था क्योंकि सबर कर पहले आदमी थे जिन्होंने 1857 के विद्रोह को देश का पहली वार ऑफ इंडिपेंडेंस बताया था। ब्रिटिश क्राउन ने दुनिया के सामने इस बस एक mutiny का नाम दे दिया था।
जिसमे सावरकर ने लिखा था, जब आदमी का जीने का उद्देश्य पूरा हो जाए और समाज को कुछ देने की इच्छा ना रेह जाए तो उसे मृत्यु का इंतजार नही करना चाहिए बल्कि खुद मृत्यु के पास चले जाना चाहिए। अपने मौत से पहले उनके रिलेटिव्स से उनकी रिक्वेस्ट थी कि उनका एंटीमसंस्कर बस हिंदू रीति रिवाज़ो के हिसाब से हो। लेकिन 13 दिन का शोक न रखा जाए। इस तरह 26 फ़रवरी 1966 को विनायक सावरकर ने अपनी इच्छा मृत्यु को स्वीकार किया। अब ऐसे इंसान को फाइटर के नाम से याद करना या कायर के नाम से ये आपको तय करना है। अपने विचार हमारे साथ शेयर करे।
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