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Friday, November 22   6:33:11

शादी चलने या न चलने के कुछ अलग तरह के पैरामीटर तय होते हैं

बचपन से लेकर वर्तमान समय तक के घेरे में मैंने अपने आसपास अनगिनत ऐसे जोड़े देखे हैं- जिनमें से किसी एक ने स्वतः अपनी इच्छा से अपने साथी के आगे पूर्ण आत्मसमर्पण कर रखा हो ..

    क्योंकि दो लोगों में से किसी एक को शुरुवात में ही यह मानने को मजबूर कर दिया जाता है कि – अगला तुम्हारी सोच व चिंतन से बहुत ऊँचा मक़ाम रखता है..अतः उसकी मर्ज़ी, उसकी पसंद, उसका निर्णय ही परिवार के लिए श्रेष्ठतम सिद्ध होगा..और तुम्हें उसका अनुपालन करना ही है…

    ऐसे में जब स्वेच्छा से एक पक्ष दूसरे पक्ष की तमाम सही गलत बातों को मानकर उनकी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी निहित है जैसी भावनात्मक मूर्खता करते हुए जीवनयापन करते नज़र आते हैं तो वह जोड़ा समाज का सबसे आदर्श जोड़ा बन जाता है..

    दूसरे तरह की एक घटना जो सबसे अधिक भोगी जाती है वह ये है कि -हम देखते हैं की दो लोग अपने -अपने क्षेत्र में अपने -अपने व्यक्तिगत स्तर पर बेहतरीन तरह के इंसान होते हैं यहाँ तक की अत्यंत मेधावी और कर्मठ भी… मगर फिर भी न जाने क्यों उनकी केमस्ट्री ज़िन्दगी भर कभी मैच नहीं करती…मतलब साफ़ तौर पर वो लोग एक दूजे के लिए सांप व नेवले- सी आपस में प्रवृत्ति रखते हैं…

      ऐसे में ये जानते बुझते हुए भी कि – इन दो लोगों के मध्य अब तक,आपस में न कभी कोई सहृदयता विकसित हुई है… न ही कभी किसी के प्रति आभार के भाव उपजे हैं… और न ही कभी किसी ने अपनी गलती ही मानी है…. फिर भी निर्बाध गति से परिवार की समस्त ज़रूरतें समय पर पूरी होती रही ..

      बच्चों की परवरिश कम-अज़ -कम आर्थिक स्तर पर तो उत्कृष्ट ही हो रही.. तो ऐसे समभ्रान्त जोड़े बिना किसी शोर -शराबे के जैसे तैसे कृतिमता के आवरण को ओढ़कर अपने दिन गुज़ारने लगते हैं…और समाज में सबसे सम्पन्न कहलाते हैं…

      तीसरे तरह के दृश्य में हम पाते हैं कि – दो लोगों के बोलने -बतियाने, रहन -सहन एवं सोचने -विचारने में कहीं कोई कमी नहीं.. वे प्रगतिशील विचार वाले आज़ाद ख़्याल लोग हैं और भरसक एक दूजे को काफ़ी हद्द तक स्पेस देकर चलते हैं… लेकिन उनके शयनकक्ष के भीतर एक अबोलेपन ने अपनी गहरी पैठ जमा रखी है.. डबलबेड के दोनों छोर पर वे लोग अपनी तय सीमाओं में सिमटकर बरसों से अपनी नींद पूरी किया करते हैं… और इसी समाज में सबसे ख़ुशहाल माने जाते हैं…

      हमारा भारतीय समाज दो लोगों की परस्पर समझदारी, सामंजस्य, प्रसन्नता या स्वतंत्रता के विषय में मार्जिन न रख कर… लोकलाज, पीढ़ियों से चली आ रही रीति -नीति,पारिवारिक एवं सामाजिक थोथे मूल्य और झूठी प्रतिष्ठा के आगे शीश नवाने में विश्वास अधिक रखता आया है… इसी वजह से असंख्य दम्पत्तियों ने हमसफ़र की बेवफ़ाइयों के बावजूद किस्मत के खेल को अपना भाग्य मान लिया है.. जिससे अपने घर की आग की आंच औरों को महसूस न हो.. और परिवार पलता रहे…

      कुछ जोड़ों में मैंने सम्मान आदर और प्रेम से अधिक भय की अधिकता देखी है.. वैभव और विलासियता के छीन जाने का भय, नाम या सरनेम के छीन जाने का भय.. दरअसल मुक्त कर देने का भय..

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      किसी -किसी परिवार में मैंने देखा है अपने साथी को समस्त सुख, सम्पन्नता उपलब्ध करवाने के पश्चात उसकी निजी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की ज़ोर- ज़बरदस्ती…. वो भी इस दम्भ के साथ की तुम्हें अपनी आँखों से दुनिया देखने की आवश्यकता ही क्या है जब मैं आँखें, हाथ और पांव बनकर साथ मौजूद हूँ..

      ये सारे दंपत्ति जीवन पर्यंत आत्मनिर्भरता के आस्वाद से सदैव वंचित ही रहे..मगर समाज में कहलाये परम् कर्तव्यनिष्ठ..

      कभी -कभी तो ऐसा भी घटित होते देखा है कि – दो लोगों के दरम्यान एक ने दिल जिगर जान लुटाकर अपनी पूरी वफ़ा प्रेम एवं समर्पण न्योछावर कर अपने हमनवां के लिए वो सब कुछ किया जो उसके मिज़ाज और तरबियत से बिल्कुल जुदा था मगर सामने वाले ने एक प्रतिशत भी इन चीज़ों की कभी कोई क़द्र ही न की…

        उल्टा अपने साथी को हमेशा संदेह के घेरे में अकेला भटकने को छोड़े रखा.. उसके लिए कभी कोई शांति बैठक या मौखिक रूप में ही सही हलफ़नामा तैयार नहीं किया जिससे ज़िन्दगी आसान बनाई जा सके.. घर ऐसों के भी चलते रहे..

        स्मरण रहे – शारीरिक शोषण, व्यभिचार, धोखाधड़ी , दहेज या किसी भी तरह के अपराध को कर गुज़रने वालों के लिए इस समाज ने कानून बनाए हैं मगर मानसिक शोषण की रिपोर्ट अब तक हमारे यहां खुले रूप में किसी की दर्ज़ नहीं होती..ज़िन्दगी तो ऐसे निकम्मों के साथ भी गुज़ारी जाती रही है..

        फिर कई युगल ऐसे भी देखे गए जिन्होंने वाकई अपने जीवन को उत्सव की तरह जीया.. पल -पल एक दूसरे की कमियों को स्वीकार कर आगे बढ़ते रहे और समय -समय पर एक दूसरे की कामयाबियों की प्रशंसा भी करते रहे..माने हर तरह से आसक्ति को बचाते चले… और अंत में परम् विश्रान्ति को प्राप्त हुए…

        और कईयों ने तो उम्रभर सब्र और शुक्र का दामन थामे रखा मगर अंत तक आते -आते एक दूजे के घोर विरोधी बन गए…

        बहुतेरे ऐसे भी हुए की चट्टान सा हृदय लेकर पूरी ज़िन्दगी काट दी.. वे मुस्कुराये मगर अलग -अलग समय पर… शायद!कभी साथ -साथ नहीं…

        इन्हीं में से जिन दमदार विवेकशील और ख़ुदमुख़्तार लोगों ने अन्याय अवसाद और कुंठित मानसिकताओं को निरस्त कर अपने हिस्से की ज़मी और आसमां की तलाश समय रहते अपने शर्तों पर कर ली वो आज़ाद और इस सोसाइटी के लिए मिसाल बनकर सामने आये…

        लेकिन जिन लोगों ने केवल और केवल अपने अहंकार की तुष्टि के लिए या मामूली से पनपे गलतफ़हमी के लिए अलगाव के रास्ते को चुना उन्होंने एकाकीपन के दंश और समाज की बदनियतों को भी ख़ूब ख़ूब झेला… और अंततः अपने जीवन में आगे चलकर दूसरे तरह के समझौते करने पर मजबूर होते नज़र आये…जो हर हाल में दुःखद अंत के किरदार कहलाये..