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Friday, November 22   11:54:08

अलविदा यूसुफ भाई !

22 Apr. Vadodara: वह तीन महीने पहले जनवरी की एक ठंडी रात थी । हम लोग आदिवासी इलाकों में कोरोना का दुष्प्रभाव और सामुदायिक भाव से उसके मुक़ाबले पर दो डॉक्युमेंट्री बनाने के लिए मध्यप्रदेश वाले बुंदेलखंड के पिछड़े ज़िले पन्ना जा रहे थे।विकास संवाद के सौजन्य से युसूफ भाई और उनकी टीम से संपर्क हुआ था। युसूफ भाई पच्चीस – तीस साल से इस बेहद ग़रीब इलाक़े में लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहे थे। रात बारह साढ़े बारह बजे दमोह से पन्ना के रास्ते में घने जंगल में हम रास्ता भटक गए। वह नेशनल पार्क का क्षेत्र था। युसूफ़ भाई को फ़ोन किया। उन्होंने पूछा ,कोई भी आसपास का पहचान का चिह्न बताइए। वहीं एक बोर्ड मिला ।उस पर कुछ लिखा था।हमने वह बता दिया। फिर क्या था यूसुफ़ भाई ने अनुमान लगा लिया और तब तक फ़ोन पर ही रास्ता बताते रहे ,जब तक पन्ना नहीं आ गया। हम उनके भौगोलिक ज्ञान पर हैरान थे। होटल पर यूसुफ़ भाई और उनकी पूरी टीम खड़ी थी। गरमा गरम भोजन और गरम दूध। रात एक बजे -वह भी पन्ना जैसे ज़िले में। बहरहाल हम फिर तीन बजे तक अगले दिन फ़िल्म शूट करने पर काम करते रहे।

सुबह सुबह यूसुफ़ भाई और उनके साथी होटल में थे।हम कोटा -गुंजापुर गाँव जा रहे थे।नेशनल पार्क में घने जंगलों के बीच बसा था गाँव।जब कोरोना के कारण लॉक डाउन लगा तो सैकड़ों गाँव सारे संसार से कट गए थे। यह गांव भी उनमें से एक था ।युसूफ़ भाई यहाँ कुपोषित बच्चों को स्वस्थ्य बनाने के लिए विकास संवाद के दस्तक मिशन के ज़रिए पहले से ही काम कर रहे थे। लेकिन कोरोना ने गाँव से सब कुछ छीन लिया था। रोज़ की सब्ज़ी-भाजी से लेकर दवा और कपड़े-किराना तक।युसूफ़ ने सबसे पहले लोगों को निस्तार के पानी की बरबादी रोकने के लिए प्रेरित किया।निस्तार का पानी याने नहाने, बर्तन – कपड़े धोने से लेकर छोटे छोटे काम में आने वाला पानी।उस पानी को एक नाली के ज़रिए आँगन में या घर के पीछे-आगे की फ़ालतू जगह तक पहुँचाया। फिर वहाँ देसी बीज बांटे।

देखते ही देखते घर घर में सब्ज़ी बाड़ी लग गई। हर घर अपने काम के लायक सब्ज़ियाँ उगाने लगा। यही नहीं ,वे आपस में सब्ज़ी विनिमय का काम करने लगे। कोई एक टमाटर उगा रहा है तो पड़ोसी को दे रहा है तो दूसरा गोभी दे रहा है, तीसरा मूली उगा रहा है तो चौथा मिर्च और धनिया। इस तरह सारा गाँव सामुदायिक रिश्ते की पुरानी डोर में बंध गया। कोई भी पैसा नहीं ले दे रहा था। यूसुफ़ भाई इसे देखकर बच्चों की तरह खुश होते।हमारे सामने क़रीब क़रीब हर घर की महिला या पुरुष ने यूसुफ़ भाई का अभिवादन किया।इसके बाद तो गाँव वालों ने अपनी दास्तान ख़ुद बयान कर दी। उन्होंने उत्साह से अपनी सब्ज़ीबाड़ी दिखाई।मुश्किल यह थी कि पहले पानी बहुत दूर से किसी नाले या झरने से लाना पड़ता था। यूसुफ़ ने उनका यह काम भी दस्तक देते हुए आसान कर दिया।

गाँव के लोगों को सामूहिक श्रमदान के लिए प्रेरित किया। उनसे सूखे कुएँ गहरे करवाए और पानी के नए स्रोत ( झिर ) खोज निकाले। देखते ही देखते कुएँ लबालब हो गए। चार – पांच फिट पर पानी हिलोरें ले रहा था। इसके बाद गाँव के सूखे पड़े तालाब को गहरा कराया और उसकी तलहटी में जमा जल ऊपर आ गया। गांववालों के चेहरे खिल उठे। एक पुरुष ने कहा ,”हम तो अनपढ़ ठहरे। हमें ये तरीक़े पता ही नहीं थे। नाहक इतने साल परेशान हुए।

एक महिला रूपकला (अगर मुझे ठीक नाम याद है) ने बताया कि महिलाओं के कपड़े पास के क़स्बे या पन्ना से सिलाई और खरीदे जाते थे।युसूफ़ भाई ने दस्तक केंद्र के ज़रिए मशीन दिलाई। सिलाई सिखवाई और गाँव की संकोची,घूंघट की ओट में रहने वाली महिलाओ के लिए फूलवती जैसे फ़रिश्ता बन गई।गाँव में जवान लोग कम ही दिख रहे थे।बताया गया कि मजदूरी के लिए मुंबई या दिल्ली में हैं और वहाँ भी लॉक डाउन में फँस गए हैं। तो युसूफ़ भाई ने उन्हें मोबाइल दिलाए,सोलर लाइट लगवाई और महिलाओं की पतियों से,पिताओं के बेटों से और बच्चों की अपने पिता से रोज़ बातचीत का साधन उपलब्ध कराया।

जब हम गए तो कई सोलर पैनलों के साथ मोबाइल चार्ज हो रहे थे। यह भी नए भारत की एक तस्वीर थी। शूटिंग से मुक्त हुए तो युसूफ भाई का एक और रूप सामने आया। वे गाँव की महिलाओं और पुरुषों के साथ मिलकर हम सब लोगों के लिए भोजन तैयार कर रहे थे।कंडे की आग पर बाटी और देसी हरे बैंगन का भरता। साथ में लहसुन ,हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी।संसार की मँहगी से मँहगी भोजन प्लेट उस स्वाद का मुक़ाबला नहीं कर सकती। भोजन की यह सामग्री यूसुफ़ भाई की ओर से उपलब्ध कराए गए देसी बीजों से तैयार हुई थी।आज भी वह स्वाद ख़ुश्बू के साथ जीभ से लार टपकाने लगता है।

अगले दिन हम एक और गाँव विक्रमपुर गए। वहाँ भी एक एक ग्रामवासी की आँखों में यूसुफ़ के लिए ठीक वही लाड़ देखा ,जो कोई पिता अपने बच्चे से करता है या कोई माँ अपने बेटे से करती है। इस गाँव की कस्तूरी देवी जन्म से विकलांग थी।अस्सी साल की यह बुजुर्ग घिसटकर चलती थी। यूसुफ़ ने उसे व्हील चेयर दिलाई। लॉक डाउन लगा तो उसके भूखों मरने की नौबत आ गई। तीन दिन तक उसने रोटी और नमक खाया। फिर आटा भी ख़त्म और सब्ज़ी भाजी भी चुक गई। यूसुफ़ ने इस गाँव में भी यही प्रयोग किया।कस्तूरी देवी की पड़ोसिन तुलसा बाई अपने आँगन में लगाए सब्ज़ीबाग़ से सब्ज़ियां कस्तूरी को पहुँचाने लगीं।गाँव को लॉक डाउन में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। सारे लोग यूसुफ़ मियाँ के कृतज्ञ थे।

शाम को हम पन्ना लौट आए थे। हमने यूसुफ़ का ऑफिस देखा। उसकी टीम के सभी लोग उत्साह और ऊर्जा से भरे हुए। सभी पोस्ट ग्रेजुएट और सामाजिक सरोकारों के लिए संवेदनशील। उस ऑफिस की चाय मुझे हमेशा याद रहेगी। चाय पीते पीते युसूफ ने बताया कि पन्ना की उथली हीरा खदानें सारी दुनिया भर में मशहूर हैं लेकिन उनमें काम करने वालों की दर्द भरी कहानी कम लोग ही जानते हैं।उनके फेफड़ों में मिट्टी की सफाई करते समय धूल भर जाती है। उन्हें सिलिकोसिस हो जाता है और चालीस की उमर तक वे यह लोक छोड़ देते हैं। मुझे याद आया कि करीब तीस बरस पहले मंदसौर की स्लेट पेंसिल कारख़ानों में काम करने वालों पर इसी सिलिकोसिस के क़हर पर एक फ़िल्म बनाई थी। वहाँ तो एक गाँव केवल विधवाओं का गाँव था। उनके पति खदानों में काम करते हुए सिलिकोसिस का शिकार हो गए थे।

बहरहाल ! तो पन्ना के इन श्रमिकों के लिए यूसुफ़ ने यह लड़ाई लड़ी और जीती। उस पर भी हम फ़िल्म बनाते , लेकिन इस बार तो हमारा विषय यह नहीं था। हमने यूसुफ़ भाई से अगली बार का वादा किया और सतना ज़िले के आदिवासी गाँवों के लिए निकल पड़े। इस पूरी यात्रा में मुझे युसूफ भाई एक नायक के रूप में याद आते रहे।

फ़िल्म पूरी हो चुकी थी।बीच बीच में उनसे बात भी होती रहती थी।कभी किसी का नाम पूछने के लिए तो कभी कोई आँकड़ा जानने के लिए।इधर सवाल होता और उधर से व्हाट्स अप पर पलक झपकते उत्तर आ जाता।यह फ़िल्म दरअसल जर्मनी में दिखाई जानी थी।इसलिए यूसुफ़ भाई अत्यधिक गंभीर थे।कहते थे,” सर ! एक भी जानकारी ग़लत नहीं जानी चाहिए।मैं किसी प्रचार की चाहत के कारण यह काम नहीं करता”।

इसके बाद अभी तीन दिन पहले एक दिन फेसबुक पर सुबह सुबह मनहूस खबर मिली।यूसुफ़ भाई गाँवों को कोरोना से जंग जीतने का मन्त्र देते देते खुद उसके शिकार बन गए।इस गुमनाम नायक को बचाने की कोशिशें हुईं मगर नाक़ाम रहीं।बारह अप्रैल को कोरोना की जकड़न में आए और अठारह को उससे मुक्त हो गए।

उफ़ ! क्या विडंबना है ? इंसान अपने जाने के बाद परिवार को व्यवस्थित करने की योजना बनाने का काम भी पूरा नहीं कर पाता। यूसुफ़ भाई अपने उस आख़िरी सफ़र पर चले गए,जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता।मुझसे उमर में कई बरस छोटे थे ,लेकिन बहुत बड़े काम कर गए यूसुफ़ भाई। किसी कवि के इस सवाल का उत्तर किसी के पास नहीं है – मैं पूछता हूँ तुझसे ,बोल माँ वसुन्धरे ,तू अनमोल रत्न इस तरह लीलती है किसलिए ?

विकास संवाद के लिए यक़ीनन यह बहुत बड़ा सदमा है। सचिन जैन , राकेश मालवीय और उनकी टीम को अब और कई गुना तेज़ी से काम करना होगा। यही यूसुफ़ भाई को असली श्रद्धांजलि होगी।वे तो अपनी यह फ़िल्म नहीं देख सके,लेकिन उनकी यह फिल्म जर्मनी में दिखाई जा रही है।अलविदा युसूफ़ भाई !