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गुजरात के गिर में सरकार की इको- सेंसेटिव नीति के खिलाफ किसानों का विरोध प्रदर्शन

चर्चा का विषय -: सरकार के खिलाफ फूटा किसानों का गुस्सा गुजरात के तलाला जिले में किसानों का जारी रहा विरोध प्रदर्शन जिसका मुख्य कारण गुजरात के 3 से 4 जिलों के 190 से ज्यादा गांवों को इको-सेंसेटिव जोन में शामिल किया जाना है
जिस पर किसानों का विरोध जारी है और उनका कहना है कि इस नीति से सबसे ज्यादा नुकसान किसानों के रोजमर्रा के जीवन पर ही पड़ेगा और यह केवल भ्रष्टाचार का एक नया स्वरूप है किसानों का मानना है कि अगर यह प्रकृति की रक्षा के लिए होता तो या नीति गिरनार के जंगलों में भी लगता भावनगर में भी लगता और राजना में भी लगता यह केवल किसानों को समाप्त करने की नीति है जिसे किसानों ने “Black law” के रूप में संबोधित किया

क्या है इको-सेंसिटिव जोन-:
इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) का इतिहास
इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) उन क्षेत्रों को कहा जाता है जो संरक्षित वन्यजीव अभयारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों और अन्य पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों के आसपास होते हैं। इन क्षेत्रों को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा घोषित किया जाता है ताकि वहाँ की जैव विविधता की रक्षा की जा सके और अवैध निर्माण, प्रदूषण, तथा अन्य हानिकारक गतिविधियों को रोका जा सके।

इको-सेंसिटिव ज़ोन का इतिहास -:
1972: वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (Wildlife Protection Act, 1972) भारत में वन्यजीवों की रक्षा के लिए 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। हालाँकि, इसके आसपास के इलाकों में मानव गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए कोई विशेष नीति नहीं थी।

1991: पर्यावरण और वन मंत्रालय की गाइडलाइन -:
1991 में, भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय (MoEFCC) ने इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) की परिकल्पना प्रस्तुत की। इसमें कहा गया कि संरक्षित क्षेत्रों के 10 किलोमीटर की परिधि में ऐसे क्षेत्र होने चाहिए जहाँ प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियाँ प्रतिबंधित हों।

2002: सर्वोच्च न्यायालय का आदेश-:
2002 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए निर्देश दिया कि सभी राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के चारों ओर 10 किलोमीटर का इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित किया जाए। इस आदेश के पीछे उद्देश्य यह था कि संरक्षित क्षेत्रों के पास अंधाधुंध औद्योगिकीकरण, खनन और निर्माण कार्य न हो, जिससे जैव विविधता को नुकसान पहुँचे।

2005: ESZ अधिसूचना की प्रक्रिया-:
2005 में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे अपने-अपने इलाकों में संभावित इको-सेंसिटिव ज़ोन की पहचान करें और उसकी अधिसूचना जारी करें। राज्यों को यह भी स्वतंत्रता दी गई कि वे ज़रूरत के अनुसार इस सीमा को 10 किलोमीटर से कम या अधिक कर सकते हैं।

2011-2020: ESZ की अधिसूचना और विरोध-:
2011: विभिन्न राज्यों ने ESZ को लेकर अधिसूचना जारी करनी शुरू की। कुछ स्थानों पर स्थानीय समुदायों और किसानों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें डर था कि यह उनके कृषि और व्यवसाय पर प्रतिबंध लगाएगा।

2018: सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से निर्देश दिया कि सभी संरक्षित क्षेत्रों के चारों ओर ESZ को अधिसूचित किया जाए।

2020: कई राज्य सरकारों ने ESZ की सीमा को घटाने की सिफारिश की, क्योंकि स्थानीय लोग इसे अपनी आजीविका के लिए बाधा मानते थे।

2022: सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय-:
2022 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सभी संरक्षित क्षेत्रों के चारों ओर कम से कम 1 किलोमीटर का ESZ अनिवार्य रूप से घोषित किया जाए। इस फैसले के बाद कुछ राज्यों में भारी विरोध हुआ, खासकर केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में, जहाँ किसानों और स्थानीय समुदायों ने इसे अपने अधिकारों के खिलाफ बताया।
इको-सेंसिटिव ज़ोन की अवधारणा पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता की रक्षा के लिए बनाई गई थी, लेकिन इसे लागू करने में कई चुनौतियाँ भी आईं।
सकारात्मक पक्ष: यह संरक्षित क्षेत्रों को अवैध खनन, प्रदूषण और अनियंत्रित शहरीकरण से बचाने में मदद करता है।
नकारात्मक पक्ष: किसानों और स्थानीय व्यवसायों को कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके आर्थिक अवसर सीमित हो जाते हैं।
आज के समय में इको-सेंसिटिव ज़ोन का मुद्दा कई राज्यों में चर्चा और विवाद का विषय बना हुआ है, और सरकारें इसे स्थानीय समुदायों की जरूरतों के अनुसार संतुलित करने का प्रयास कर रही हैं।