सती प्रथा का चलन भारतीय समाज में एक समय में व्यापक था, और यह कई वर्षों तक चलता रहा है। सती प्रथा के तहत, विधवा स्त्री को अपने पति के शव के साथ अग्निकुंड में समाहित करने की आवश्यकता होती थी। यह प्रथा धर्म और समाज की एक प्राचीन परंपरा थी, लेकिन यह आधुनिक दर्शन और कानूनी नीतियों के खिलाफ थी।
इस प्रथा का प्रमुख उद्देश्य स्त्री के पति के परलोक और अपने परिवार की खुशी की कामना थी, लेकिन इसके कई दुष्परिणाम भी थे, जैसे कि स्त्री के मौत के लिए जिम्मेदारी का दबाव, अधिकांश बार यह प्रायोजनिक रूप से होता था, और समाज में स्त्रियों की स्थिति को कमजोर करता था।
भारतीय समाज में, सती प्रथा को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, जैसे कि कानूनी कार्रवाई, सामाजिक जागरूकता अभियान, और शिक्षा के माध्यम से। हालांकि, छोटे-छोटे क्षेत्रों में इस प्रथा की कुछ रूपों को अब भी देखा जा सकता है, लेकिन यह उत्पीड़न और जातिवाद के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनता है।
भारत में सती प्रथा के पहले साक्ष्य कई स्थानों पर मिलते हैं। हालांकि, इस प्रथा के ज्यादातर साक्ष्य 7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के काल में मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के भव्य ताजमहल के पास स्थित एक स्मारक में, मुगल बादशाह अकबर की नवरत्नों में से एक, जोधा बाई की जीत को स्मारित करता है, में सती प्रथा का उल्लेख है। सती प्रथा के उल्लेख भारत के विभिन्न काव्यों, कथाओं और इतिहासों में भी मिलते हैं।
भारत में सती प्रथा यूं तो लगभग समाप्त हो चुकी है अब कहीं देखने सुनने में नहीं जान पड़ती है। लेकिन, यदि हम अपना नजरियां बदले तो स्त्री तो वैसे भी अन्य मामलों में आज भी सती हो रही है जिम्मेदारी का बोझ उठाए हुए भागमभाग की जिंदगी प्रत्येक दिन का सूरज जब भी उगता स्त्री के लिए हर रोज संघ्रष करने के लिए प्रेरित करता है। स्त्री को सती प्रथा से तो मुक्ति मिल गई पर नजाने अनजाने में कितनी बेडियों में जकड़ दी गई है।
परंपराओं के नाम पर आज भी कई महिलाओं को घूंघट में रहकर घर की चार दिवारी में बंद कर दिया जाता है। गांव-देहात भले ही विकसित हो रहे हो, लेकिन आज भी वहां ऐसी कई महिलाओं है जिन्हें पुरुषों के सामने आने तक की आजादी नही है। एक ओर हमारे देश की महिलाएं चांद पर जा रही हैं, सरकार बना रही हैं वहीं अब भी ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्हें सांस लेने तक की आजादी नहीं है। आज हमारे बीच भले ही सती प्रथा का चलन नहीं है मगर इसके बदले ऐसी और भी कई परंपराएं हैं जो आज भी महिलाओं के लिए अभिषाप हैं।
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