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Monday, November 25   2:34:13

ब्लरमूड्स I अनु चक्रवर्ती

बाहर दुनिया की रफ़्तार मध्यम पड़ चुकी थी , मगर अंदर तो किसी की दुनिया जैसे पूरी तरीके से रुक गई थी या रोक ली गई थी….वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है और आगे बढ़ जाता है … कल तक जो साथ थे , आसपास थे वो अब हमेशा -हमेशा के लिए दूर हो चुके हैं….

लोग कहते हैं – सुख नहीं रहा तो दुःख भी ज़्यादा देर तक टिक नहीं पायेगा …उम्मीदों भरी सुबह आएगी …..और सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा ….मगर उसका मन जानता है कि – कहीं कुछ बेहतर न हो पायेगा …शीशा टूटकर चकनाचूर हो चुका है … अब उसमें न तो अतीत की सुखद स्मृतियां बाक़ी रहीं और न ही भविष्य की सुहानी भोर का कोई नज़ारा छिपा रहा ….
मन का बिखराव हो चुका है …..

जब हमराही का साथ था, तब दुनिया हज़ार आंखों से घूरती रही ….अब किसी के बेवक़्त सोने -जागने से किसी को ,कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ता …मामूली से लोग सिर्फ़ अपनी ज़िद पूरी किया करते हैं ..दो चाहने वालों के रास्ते में संग और ख़ार बिछाकर …

किसी का कुछ नहीं बिगड़ता …दो हम मिज़ाज लोगों के सुख – दुःख साझा कर लेने से ….मगर लोग अपनों के सुक़ून पर भी ऊंगलियां उठाने से बाज़ नहीं आते …. इंसान , इंसान से दूर भागने लगता है … बड़े सख़्त होते हैं दुनियावी नियम कानून ….सच्चे हमदर्दों पर भी भरोसा नहीं कर पाते …

इस बात पर अमल करना उनके लिए बेहद मुश्क़िल हो जाता है कि – इस संसार में देह से कहीं ऊपर होती है मित्रता …एक समान सोचने और समझने वालों के भीतर पनपती है एक रहस्यात्मक संधि ….जिसे किसी संज्ञा में ढालने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए …. बल्कि प्रतीक्षा करनी चाहिए ….जो उसके स्वरूप में पवित्रता समाहित रही तो वह संबंध ,स्वयं ही सर्वनाम लेकर एक रोज़ उभरकर सामने आएगा । मगर जिसने कभी सखाभाव का स्वाद चखा ही नहीं वो भला जूठे बेरों के मीठे होने की सरसता को कैसे जान सकता है …..

कुछ मुलाक़ातें इत्तेफ़ाक़न मुक़म्मल होकर भी उम्र भर के लिए किसी को अपना नहीं बना पातीं …वहीं कुछ बेमेल से रिश्ते लंबे सफ़र तक साथ चला करते हैं ….एक दूसरे का ख़्याल रखा करते हैं …झूठमूठ के लिए ख़ुश हुआ करते हैं ….

कोई यादों में बस जाता है ….मुड़कर एक बार भी नहीं देखता …कोई वहीं ठहर जाता है …लाख कोशिशों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाता …. कोई अब कुछ भी याद नहीं करना चाहता तो जैसे कोई यादों के दरीचे में झांक कर केवल आंसू बहाया करता है …ख़ाली ख़ाली से रह जाते हैं दो हाथ .….

अपने मन की बात को दबाकर कोई मासूम पीला -सा पड़ने लगता है ..कोई अपने मन की होते देख मुतमईन हो जाता है…. यारियां जुड़कर भी लंबे वक्त तक जुड़े नहीं रह पातीं ..

ज़िम्मेदारियों और दायित्वों का दशानन, अनाहूत संभावनाओं को लील जाता है …बेचारा मुनष्य अपने ही दिए गए अधिकारों के मकड़जाल में उलझकर रह जाता है …. और तो और जिसे वह अपना कुटुंब मानता है दरअसल वही पीछे से उसके लिए चक्रव्यूह रचने लगता है …

दुनिया कितनी बेहतरीन हो सकती है – मात्र अपने – अपने चरित्र की नैतिकता को संभालते हुए …. अपने वजूद को झूठे प्रपंच से मुक्त करते हुए …. क्लांति के क्षणों में शांति का उपभोग करते हुए … एक तरंग को जीते हुए …एक अहसास को सहेजते हुए …

ये जंगल , फूल , पहाड़ , नदियाँ , हवा , ख़ुशबू , धरती ,आसमान तमाम चीज़ें … सिर्फ़ किसी के दूर से ही साथ होने मात्र से कितनी ख़ूबसूरत लगने लगती हैं ….सितारों भरी रात नए ख़्वाब बुनने लगती है …सुबह कितनी हल्की -हल्की सी लगती है …. मगर हमेशा ख़ुशनुमा किस्सों के क़िरदार कुछ दूर साथ – साथ चलकर जुदा हो जाते हैं …बस बची रहती है एक आह ! एक तड़प …!

उम्र चाहे कितनी ही मुख़्तसर क्यों न हो लेकिन ऐसी अधूरी कहानियां होती हैं – बिल्कुल सच्ची …!