पुणे के तांबट अली की जीवंत गलियों में बसा एक प्राचीन शिल्प छिपा हुआ है, जो परंपरा की लय और कारीगरी की महारत की झंकार को अपने में समाहित किए हुए हैं।
पुणे के कस्बा पेठ में स्थित ताम्बत अली, जिसे कॉपर एली के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसी जगह है जहाँ तांबे के सामान बनाने की कला सदियों से जीवित रही है। धातु की पिटाई की आवाज़ें सुबह से शाम तक गली में गूंजती रहती थीं, जो कुशल ताम्रकारों के काम का प्रतीक थीं।
यहाँ, तांबे के कारीगर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से विरासत में मिली कला को जीवित रखते हैं। वे अपनी कुशलता और कल्पना से तांबे को विभिन्न आकारों और रूपों में ढालते हैं, जो न केवल उपयोगी होते हैं बल्कि कला के उत्कृष्ट नमूने भी होते हैं।
ताम्बत अली के कारीगर बर्तन, मूर्तियाँ, दीपक, और अन्य सजावटी सामान बनाते हैं। उनके हाथ से बने सामान अपनी सुंदरता और टिकाऊपन के लिए जाने जाते हैं। ताम्बे के बर्तन न केवल भोजन पकाने के लिए उपयोगी होते हैं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद माने जाते हैं।
ताम्बत अली का निर्माण करीब 250 साल पहले पेशवा शासकों के समय में हुआ था। यह गली तांबे के सामान बनाने के लिए मशहूर है, जिन्हें ‘ताम्र काम’ कहा जाता है। यहाँ के ताम्रकार ‘मथर काम’ नामक एक विशेष तकनीक में कुशल हैं, जिसमें तांबे को मजबूत बनाने के लिए उसे पीटा जाता है।
आजकल, तांबे के बर्तनों का उपयोग कम हो रहा है, जिससे ताम्बत अली के कारीगरों को अपनी कला का प्रदर्शन करने और जीविका कमाने में कठिनाई हो रही है। युवा पीढ़ी इस कला में रुचि नहीं दिखा रही है, जिससे ताम्बत अली की परंपरा को खतरा है।
ताम्बत अली की विलुप्त होती परंपरा को बचाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार और गैर-सरकारी संगठन ताम्रकारों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता प्रदान कर रहे हैं। युवा पीढ़ी को इस कला में रुचि पैदा करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। यह उम्मीद की जाती है कि इन प्रयासों से ताम्बत अली की जीवंतता लौटेगी और तांबे के सामान बनाने की कला आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रहेगी।
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