भोपाल से करीब 500 किलोमीटर दूर, धूल भरी सड़कों और छोटे-छोटे घरों वाला एक गांव आज भारत के नक्शे पर अपनी अलग पहचान बना रहा है। इसका नाम है बिछारपुर, जिसे प्यार से लोग ‘मिनी ब्राजील’ कहते हैं। यह कोई साधारण गांव नहीं है; यह एक ऐसी जगह है जहां सुबह की शुरुआत रेफरी की सीटी से होती है और दिन का अंत उसी के साथ। यहां हर घर में एक फुटबॉलर या फुटबॉल कोच मिलेगा। करीब 1,000 लोगों की आबादी वाला यह गांव फुटबॉल के जुनून से सराबोर है, और इस जुनून ने न सिर्फ बच्चों के सपनों को पंख दिए, बल्कि सामाजिक बदलाव की एक नई कहानी भी लिखी।
फुटबॉल ने बदली तकदीर
कभी यह गांव नशे और बेरोजगारी की चपेट में था। युवा शराब की बोतलों के पीछे भागते थे, लेकिन आज वही हाथ फुटबॉल को थामे मैदान पर दौड़ रहे हैं। इस बदलाव का श्रेय जाता है सुरेश कुंडे को, जिन्होंने एक खिलाड़ी से कोच बनकर गांव के बच्चों को नई राह दिखाई। सुरेश ने देखा कि बच्चों में प्रतिभा है, बस उसे निखारने की जरूरत है। उन्होंने मैदान को अपना स्कूल बनाया और बच्चों को फुटबॉल की बारीकियां सिखाईं। धीरे-धीरे यह खेल गांव की संस्कृति का हिस्सा बन गया।सीनियर खिलाड़ी बताते हैं कि कैसे वे पुराने टीवी और वीसीआर पर फुटबॉल मैच की रिकॉर्डिंग बच्चों को दिखाते थे। ये छोटे-छोटे प्रयास थे, लेकिन इनसे बच्चों के दिल में फुटबॉल के प्रति प्यार जगा। आज बिछारपुर के बच्चे नेशनल चैंपियनशिप में अपना जलवा दिखा रहे हैं।
स्कूल और सपने साथ-साथ
फुटबॉल ने न सिर्फ खेल का मैदान बदला, बल्कि गांव की शिक्षा व्यवस्था को भी नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। स्कूल ड्रॉपआउट दर घटी, नामांकन बढ़ा, और नए स्कूलों के साथ-साथ अब एक अस्पताल भी खुल गया है। गांव में नियम सख्त है—राष्ट्रीय स्तर पर खेलना है तो पढ़ाई पूरी करनी होगी। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स (एनआईएस) के कोच अनिल सिंह कहते हैं, “यहां के बच्चे स्कूल छोड़कर खेतों में काम करने को मजबूर नहीं होते। फुटबॉल ने उन्हें उम्मीद दी है।” 2011 की जनगणना के मुताबिक, बिछारपुर की साक्षरता दर 40% थी, जो अब तेजी से बढ़ रही है।
खास बात यह है कि लड़कियां भी इस क्रांति का हिस्सा हैं। माता-पिता अब अपनी बेटियों को मैदान पर उत्साह बढ़ाते देखे जा सकते हैं। गांव में यह मान्यता है कि अगर एक बच्ची फुटबॉल को संभाल सकती है, तो वह जिंदगी की हर चुनौती को पार कर सकती है।
मिनी ब्राजील का उदय
बिछारपुर को ‘मिनी ब्राजील’ की उपाधि 2009 में तत्कालीन शहडोल कलेक्टर राघवेंद्र सिंह ने दी थी। लेकिन इसकी नींव पहले ही पड़ चुकी थी। कोच अनिल सिंह बताते हैं, “स्थानीय लोगों का फुटबॉल के प्रति जोश देखकर लगा कि इसे समर्थन देना जरूरी है।” इसके बाद शहडोल के कमिश्नर राजीव शर्मा ने कोविड काल में ‘फुटबॉल क्रांति’ नामक पहल शुरू की। हर साल 15 टूर्नामेंट और 10,000 बच्चों की भागीदारी ने इस क्षेत्र को फुटबॉल का गढ़ बना दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस गांव की तारीफ की। दो साल पहले अपनी ‘मन की बात’ में उन्होंने बिछारपुर का जिक्र किया, जिससे इस छोटे से गांव की कहानी देशभर में गूंज उठी।
माता-पिता की खुशी, बच्चों का भविष्य
आज बिछारपुर के बच्चे 10 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते कई राष्ट्रीय टूर्नामेंट खेल चुके होते हैं। दसवीं कक्षा में पढ़ने वाला दुर्गेश सिंह इसका जीता-जागता उदाहरण है, जिसने तीन नेशनल टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है। माता-पिता के चेहरों पर गर्व की चमक साफ दिखती है। वे कहते हैं, “हमारे बच्चों ने फुटबॉल के जरिए अपनी पहचान बनाई है।”
बिछारपुर की यह कहानी प्रेरणा का एक अनमोल खजाना है। एक छोटा सा गांव, सीमित संसाधनों के बावजूद, फुटबॉल के दम पर न सिर्फ अपनी पहचान बना रहा है, बल्कि सामाजिक बुराइयों को भी जड़ से उखाड़ रहा है। यह दिखाता है कि खेल सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि बदलाव का एक मजबूत जरिया हो सकता है। सरकार और समाज को चाहिए कि ऐसे गांवों को और समर्थन दे, ताकि बिछारपुर जैसे और ‘मिनी ब्राजील’ देश में उभरें। यह नन्हा गांव हमें सिखाता है कि सपनों के पीछे अगर जुनून और मेहनत हो, तो कोई भी मंजिल दूर नहीं।

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