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Wednesday, March 19   8:26:21

औरंगजेब ने क्यों लगाया था कठपुतली के खेल पर प्रतिबन्ध …!

एक ज़माने में गांव की किसी गली में यह आवाज़ गूंजते ही पूरा गांव इकट्ठा हो जाता था। पर्दे के पीछे से डोरियों द्वारा लकड़ी की मूर्तियों को नचाने का यह खेल ग्रामीण संस्कृति का प्राचीन और महत्वपूर्ण मनोरंजन का माध्यम था। लेकिन अगर आज यह पूछा जाए कि आपने आखिरी बार कठपुतली का खेल कब देखा था, तो शायद जवाब देने में समय लग जाए। कई लोगों ने तो इसे कभी देखा भी नहीं होगा। हालांकि, यह निश्चित है कि लगभग 2500 साल पुरानी इस कला के सिद्धांतों पर आधारित एक आधुनिक कला माध्यम हम सभी ने जरूर देखा होगा, जिसे हम फिल्म, मूवी, सिनेमा के रूप में जानते हैं।

कैमरे के आगमन से लगभग 200 साल पहले, 17वीं शताब्दी में लेंस और रोशनी के माध्यम से छवियों को पर्दे पर उतारने की शुरुआत हो चुकी थी। पहले ये छवियां पेंटिंग्स या प्रिंट के रूप में स्लाइड पर दिखती थीं। मनोरंजन और शिक्षा के साधन के रूप में इनका उपयोग किया जाता था। लेकिन सवाल यह उठता है कि छोटी छवि को लेंस और प्रकाश के माध्यम से बड़े पर्दे पर दिखाने का विचार कहां से आया?

कठपुतली से सिनेमा तक का सफर

इसका उत्तर छाया नाटक (Shadow Play) में छिपा है। सदियों पहले छाया नाटक में कठपुतलियों की कट-आउट आकृतियां बनाई जाती थीं, कपड़े की एक स्क्रीन के पीछे रोशनी डालकर उनके प्रतिबिंब को स्क्रीन पर प्रस्तुत किया जाता था। इन छवियों को किरदारों की तरह हावभाव देकर उनसे संबंधित कहानियां सुनाई जाती थीं। यही छाया नाटक, आधुनिक सिनेमा की प्रेरणा बना और पर्दे पर प्रोजेक्शन तकनीक विकसित होने लगी।

भारत में कठपुतली कला

गुजरात में कठपुतलियों को ‘विढ़ी-विष्टिका’ कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कपड़े को लपेटकर बनाई गई गुड़िया। प्राचीन काल में इस कला का उपयोग केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं, बल्कि भूत-प्रेत भगाने, मानसिक रोगों का इलाज करने और लोक शिक्षण के लिए किया जाता था।

कठपुतली कला के चार मुख्य प्रकार होते हैं:

  1. ग्लव पपेट (Glove Puppet) – इसे हाथ में पहनकर चलाया जाता है।
  2. रोड पपेट (Rod Puppet) – लकड़ी की छड़ियों से नियंत्रित किया जाता है।
  3. शैडो पपेट (Shadow Puppet) – परदे के पीछे रोशनी से छाया बनाई जाती है।
  4. स्ट्रिंग पपेट (String Puppet) – धागों की सहायता से नचाया जाता है।

कठपुतली कला का स्वर्ण युग

पुराने समय में विशेष रूप से ग्रामीण भारत में कठपुतली खेलों का विशेष महत्व था। गांव के चौक में जैसे ही ढोलक बजती, लोग कठपुतली खेल देखने उमड़ पड़ते। पर्दे के पीछे कठपुतली संचालक, लोककथाएं, ऐतिहासिक गाथाएं, रामायण-महाभारत के प्रसंग प्रस्तुत करता। महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान जैसे वीरों की कहानियां भी इन खेलों के माध्यम से सुनाई जाती थीं

लेकिन औरंगजेब के शासनकाल में इस कला पर प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि कठपुतली खेलों में पृथ्वीराज चौहान और अमर सिंह राठौड़ की वीरता दिखाने से विद्रोह भड़कने की संभावना थी। तब से कठपुतली संचालकों ने संवाद बोलना बंद कर दिया और ‘पीपड़ी’ (सीटी) का उपयोग करने लगे।

राजस्थान की कठपुतली परंपरा

राजस्थान में कठपुतली कलाकारों को ‘भाट’ कहा जाता है, और वे चार जातियों में विभाजित होते हैं:

  1. राजभाट – राजा के दरबार में कवि होते थे।
  2. राव भाट – विभिन्न समुदायों के इतिहासकार होते थे।
  3. कंकाली भाट – कठपुतली कला से जुड़े होते थे।
  4. दक्षिणी भाट – जिन्हें ‘नटभाट’ कहा जाता है।

कठपुतली कलाकारों की दयनीय स्थिति

आज यह कला विलुप्त होने के कगार पर है। इसका एक कारण एक प्राचीन कथा भी बताई जाती है।

पाँचवीं शताब्दी में राजस्थान में पदलिप्तसूरी नामक एक जैन साधु थे। वे 27 औषधियों के रस से अपने शरीर पर लेप करके अदृश्य हो सकते थे। उन्होंने एक कठपुतली बनाई, जो पंखा झल सकती थी और आंखें झपका सकती थी। उनकी कठपुतली की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। राजा को किसी ने भड़काया कि साधु ने कठपुतली को उनकी बहन जैसा चेहरा दिया है, जिससे क्रोधित होकर राजा ने उन्हें राज्य से निकाल दिया।

अपमानित होकर साधु ने कठपुतली को तोड़कर श्राप दिया कि “जो भी इस कला को अपनाएगा, वह जीवनभर दरिद्र रहेगा।” इस श्राप की मान्यता आज भी है, और इस कारण कठपुतली कलाकार कभी संपन्न नहीं हो पाए।

आधुनिक समाज में कठपुतली की पुनरुत्थान की जरूरत

आज इंटरनेट और स्मार्टफोन के युग में लोग कठपुतली की कला से दूर हो गए हैं। भारत के कई हिस्सों में यह कला लुप्त हो चुकी है। हालांकि, विदेशों में कई देशों ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में कठपुतली कला को शामिल किया है

उदाहरण के लिए, कठपुतली का उपयोग आठवीं कक्षा तक के बच्चों को अंग्रेजी, गणित, इतिहास, भूगोल और विज्ञान सिखाने के लिए किया जाता है। भारत में भी इस कला को पुनर्जीवित करने के लिए कठपुतली संग्रहालय बनाए जाने चाहिए, जहां लोग इस प्राचीन कला के इतिहास और तकनीक को समझ सकें।

अगर कठपुतली कला को पुनर्जीवित करने के लिए तुरंत कदम नहीं उठाए गए, तो यह कला हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगी। कठपुतली की डोर खींची जाएगी और पर्दा हमेशा के लिए गिर जाएगा…