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Javed Akhtar

अगर जावेद अख्तर गीतकार और पटकथा लेखक नहीं होते, तो वे क्या होते?

17 जनवरी को जावेद अख्तर ने अपने जीवन के 80 वर्ष पूरे किए और 81वें वर्ष में कदम रखा। इस अवसर पर उन्होंने अपनी यात्रा का पुनरावलोकन किया और भविष्य की योजनाओं पर भी बात की। उनका जीवन न केवल गीतकार के रूप में, बल्कि एक पटकथा लेखक के रूप में भी अविस्मरणीय रहा है। जावेद अख्तर, जिनके पास इस समय दो पटकथाएं तैयार हैं और तीसरी पर वे काम कर रहे हैं, अब गीत लेखन की तुलना में पटकथा लेखन पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

जावेद अख्तर ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1964 में सहायक निर्देशक के तौर पर की थी, जब वह ग्वालियर से मुंबई आए थे। उन्होंने बताया, “मैं फिल्मों में शुरुआत सहायक निर्देशक के रूप में कर रहा था। कभी कोई समस्या आती तो मैं सीन बदल देता था। फिर धीरे-धीरे मुझे ज्यादा सीन लिखने के लिए कहा जाने लगा। लिखने का काम इतना सुखद था कि मैंने इसे अपनी मुख्य पेशा बना लिया।” लेकिन एक दिलचस्प सवाल ये था कि अगर जावेद अख्तर गीतकार और पटकथा लेखक नहीं होते, तो वे क्या करते? इस पर जावेद अख्तर का कहना था कि अगर वे फिल्म निर्देशक नहीं होते, तो संभवतः वे संगीतकार होते, और उनका करियर निश्चित रूप से एक निर्देशक के रूप में भी चमकता।

अब, जब वह 80 वर्ष के हो चुके हैं और जीवन के नवें दशक में प्रवेश कर रहे हैं, जावेद अख्तर की नजरें फिर से पटकथा लेखन पर टिकी हैं। उन्होंने 2006 में “डॉन” की पटकथा लिखी थी, और अब वे 1925 में आकार लेती एक प्रेमकहानी पर काम कर रहे हैं। “आजकल फिल्में या तो मनोरंजक होती हैं या फिर संवेदनशील दर्शकों के लिए होती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि दोनों चीज़ों को एक साथ रखा जा सकता है,” जावेद अख्तर ने कहा। उनका उदाहरण देने के लिए वह फिल्मों की “मदर इंडिया” (1957) और “प्यासा” (1957) का उल्लेख करते हैं, जो न केवल उत्कृष्ट थीं, बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही।

अपने जीवन के इस मोड़ पर जावेद अख्तर अपने समय के बेहतर उपयोग को लेकर आत्ममंथन करते हैं। वह कहते हैं, “मुझे अफसोस है कि मैंने बहुत समय गंवाया। अगर उस समय का रचनात्मक उपयोग किया होता तो बहुत कुछ नया सीखा जा सकता था।” वह यह भी मानते हैं कि जीवन में कुछ फैसले देर से लिए, जैसे कि 1991 में शराब छोड़ना। हालांकि, वह इस पर कोई पछतावा नहीं करते, क्योंकि उनका मानना है कि उन्होंने अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का विकल्प चुना।

80 के दशक के उत्तरार्ध में जावेद अख्तर और सलीम खान के बीच के रिश्ते में दरार आई, लेकिन इसके बाद भी जावेद का काम लगातार सफलता की ओर बढ़ता रहा। उनके गीतों और पटकथाओं ने फिल्मों को सफलता दिलाई। 2001 में “रिफ्यूजी” और 2003 में “कल हो ना हो” जैसी फिल्मों के गीतों ने उन्हें एक अलग पहचान दी।

अपने बच्चों, फरहान और जोया अख्तर पर उन्हें गर्व है। जावेद अख्तर ने खुशी जाहिर की कि उनके दोनों बच्चे फिल्म इंडस्ट्री में खुद को साबित करने में सफल रहे हैं। “जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो महसूस करता हूं कि जीवन ने मुझे बहुत कुछ दिया है। इसमें दुख और निराशा के पल भी थे, लेकिन सुखद और संतोषजनक क्षण भी उतने ही थे।”

शबाना आज़मी का प्रेम और आदर

शबाना आज़मी और जावेद अख्तर का रिश्ता भी प्रेरणादायक है। शबाना, जो खुद एक शानदार अभिनेत्री हैं, अपने पति जावेद के कार्यों को हमेशा प्रोत्साहित करती रही हैं। उन्होंने जावेद से कभी उनकी आत्मकथा लिखने के लिए कहा, और जावेद ने इस पर सहमति जताई। शबाना के अनुसार, “जावेद का मिजाज इतना मजबूत और प्रेरणादायक है कि वह हमेशा से कहते थे कि इस दुनिया में वह खुद को फिजूल नहीं पैदा हुए हैं। उनका यह दृष्टिकोण इतना मजबूत है कि मुझे विश्वास है कि वह अपनी आत्मकथा जरूर लिखेंगे।” दोनों के बीच कभी असहमति होती है, लेकिन उनका रिश्ता एक अद्भुत समझ और आपसी आदर पर आधारित है, जहाँ वे अपने मतभेदों को “ड्रॉप इट” शब्द से सुलझाते हैं।

जावेद अख्तर का जीवन न केवल एक गीतकार और पटकथा लेखक के रूप में, बल्कि एक प्रेरणा के रूप में भी हमारे सामने है। उन्होंने समय के साथ खुद को बदलते हुए, न केवल कला में बल्कि जीवन में भी नया दृष्टिकोण अपनाया। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्ची सफलता और संतोष उसी में है जब हम अपनी श