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कर्नाटक विधानसभा में विधायकों का वेतन दोगुना: जनसेवा या खुद की सेवा.?

राजनीति में जब भी वेतन वृद्धि की बात आती है, जनता का गुस्सा स्वाभाविक रूप से भड़क उठता है। कर्नाटक विधानसभा में हाल ही में मुख्यमंत्री समेत विधायकों के वेतन को दोगुना करने का फैसला लिया गया, जिसने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है। दिलचस्प बात यह है कि यह फैसला ऐसे समय में आया जब महंगाई चरम पर है और आम जनता अपने दैनिक खर्चों से जूझ रही है। सवाल यह उठता है – क्या यह सही समय था इस फैसले के लिए?

क्या कहते हैं ऐसे फैसले?

भारत में विधायकों और सांसदों की वेतन वृद्धि हमेशा विवादों में रही है। आइए, कुछ पुराने चर्चित मामलों पर नजर डालते हैं:

1. 2016 – दिल्ली विधानसभा में 400% वेतन वृद्धि:

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली के विधायकों के वेतन में चार गुना बढ़ोतरी कर दी थी। इससे उनका वेतन सीधे ₹12,000 से ₹50,000 हो गया, और अन्य भत्ते मिलाकर उनकी मासिक आय ₹2.10 लाख तक पहुंच गई। इस फैसले पर जनता में जबरदस्त गुस्सा देखा गया, लेकिन सरकार ने इसे जनप्रतिनिधियों की कार्यक्षमता से जोड़ा।

2. 2010 – लोकसभा सांसदों की सैलरी 200% बढ़ी:

मनमोहन सिंह की सरकार में सांसदों का वेतन ₹16,000 से ₹50,000 कर दिया गया था, जो जनता को नागवार गुजरा। सरकार का तर्क था कि सांसदों का वेतन उनके काम के अनुसार होना चाहिए, लेकिन इस फैसले को चुनावी लाभ लेने की रणनीति माना गया।

3. 2021 – तेलंगाना सरकार के विधायकों के वेतन में भारी बढ़ोतरी:

तेलंगाना सरकार ने अपने विधायकों के वेतन में 150% की वृद्धि की थी। दिलचस्प यह था कि यह फैसला तब आया जब राज्य के कई शिक्षक और सरकारी कर्मचारी वेतन में बढ़ोतरी के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। जनता ने इसे ‘नेताओं की खुद की सेवा’ कहा, जबकि सरकार ने इसे “बेहतर प्रशासनिक क्षमता” से जोड़ा।

कर्नाटक में फैसले का असर:

1. जनता का आक्रोश: सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं – जब जनता महंगाई से जूझ रही है, तब नेताओं के वेतन में इजाफा क्यों?

2. विपक्ष का वार: बीजेपी और अन्य दलों ने इसे “राजनीतिक भ्रष्टाचार” कहा और विरोध जताया।

3. चुनावी राजनीति: क्या यह फैसला आगामी चुनावों को ध्यान में रखकर लिया गया? अक्सर देखा गया है कि चुनाव से पहले वेतन वृद्धि के फैसले पार्टी की लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए किए जाते हैं।

क्या नेताओं का वेतन बढ़ना सही है?

अगर विधायक और सांसद जनता के लिए ईमानदारी से काम कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से उन्हें अच्छा वेतन मिलना चाहिए। लेकिन जब वेतन बढ़ाने का फैसला जनता की समस्याओं को अनदेखा कर लिया जाता है, तब यह सवाल उठना लाजिमी है – क्या हमारे जनप्रतिनिधि जनता की सेवा के लिए हैं, या खुद के ऐशो-आराम के लिए?

अब बारी जनता की है कि वह इस फैसले पर किस तरह प्रतिक्रिया देती है.?