जब तप और तृष्णा आमने-सामने हों…
हर साधक के जीवन में एक क्षण ऐसा आता है, जब उसका धैर्य, उसका संयम, और उसकी साधना कठोर परीक्षा से गुजरती है। उस परीक्षा की अग्नि में ही तप का असली रूप प्रकट होता है। प्रस्तुत है एक ऐसी ही दिव्य, रहस्यमयी और प्रेरणादायक कथा — एक महान हठयोगी और मोहिनी यक्षिणी की।
यह केवल कथा नहीं, एक गूढ़ प्रतीक है — भीतर के युद्ध का, जहाँ एक ओर है आत्मज्ञान की अग्नि और दूसरी ओर है मोह-माया की चंचल लहरें।
गहन वन और अमोघ साधना की गुफा
बहुत समय पहले, एक घना और रहस्यमय वन था, जहाँ सूर्य की किरणें भी अनुमति लेकर प्रवेश करती थीं। उसी वन की गोद में स्थित एक गुफा में एक हठयोगी वर्षों से मौन और ध्यान में लीन थे। न कोई कामना, न कोई विकार।
उनका शरीर स्थिर था, पर उनकी चेतना ऊर्ध्वगामी — आत्मा की ओर, ब्रह्म के मिलन की ओर।
उनकी तपस्या की शक्ति इतनी प्रबल थी कि स्वयं प्रकृति भी उनके सम्मुख नतमस्तक थी। न वासना, न विकार… केवल एक ही लक्ष्य — मोक्ष।
यक्षिणी का आगमन : सौंदर्य की आँधी
एक दिन, जब योगी ध्यान की गहराइयों में विलीन थे, तभी एक अलौकिक सौंदर्य उनके समक्ष प्रकट हुआ।
वो कोई सामान्य स्त्री नहीं थी — वो थी एक यक्षिणी।
उसकी आँखें हिरणी जैसी, वाणी कोकिल जैसी, और रूप ऐसा कि स्वयं कामदेव भी संकोच करें। उसने योगी को प्रणाम किया और मधुर स्वर में बोली —
“हे तपस्वी, तुम्हारा तेज और तप मुझे मोहित कर गया है।
मैं चाहती हूँ कि तुम मेरे साथ कुछ समय बिताओ।
मैं तुम्हें सुख, वैभव और प्रेम का वह संसार दे सकती हूँ जो देवताओं को भी दुर्लभ है।”
संयम की चट्टान और मोह का तूफ़ान
लेकिन योगी अडिग रहे। उनके नेत्र अब भी बंद थे।
ना हृदय डोला, ना चित्त विचलित हुआ।
यक्षिणी ने कई प्रयास किए — कभी अनुरोध, कभी मुस्कान, कभी आंसुओं से। पर जब कुछ न चला, तो उसने माया का सहारा लिया।
उसने अपने दिव्य प्रभाव से वातावरण को मादक बना दिया।
हवा में मादक सुगंध फैल गई, पक्षियों की बोली संगीत बन गई, और चारों ओर एक कामोत्तेजना का जाल फैल गया।
क्षणभर को योगी की श्वासें तेज हुईं। मन डोलने लगा…
लेकिन तभी भीतर की ज्वाला ने पुकारा —
“यह परीक्षा है! और परीक्षा में टिकना ही सच्चा योग है!”
योगी ने नेत्र खोले और गूंजती हुई वाणी में बोले —
“हे यक्षिणी, तेरी माया गहन है, पर मेरी साधना उससे भी गहरी।
तू मुझे मेरी राह से नहीं डिगा सकती।”
श्राप, पश्चाताप और आत्मजागरण
अपमानित और पराजित यक्षिणी अब क्रोध से कांपने लगी।
उसने कहा —
“तूने मेरा प्रेम अस्वीकार किया, मैं तुझे श्राप देती हूँ — तेरी साधना अधूरी रह जाएगी!”
योगी मुस्कराए, उनके मुख पर कोई भय नहीं था।
उन्होंने शांत स्वर में उत्तर दिया —
“जिसकी तपस्या आत्मा से जुड़ी हो, उसे कोई भी श्राप छू नहीं सकता।
तेरा यह क्रोध भी तेरी माया का ही एक रूप है।”
यह सुनते ही यक्षिणी की आंखों से आँसू बह निकले।
वह योगी के चरणों में गिर पड़ी और बोली —
“हे महायोगी, मुझे क्षमा करें।
मेरी शक्ति मेरी तृष्णा बन गई थी। अब मैं भी तप के पथ पर चलना चाहती हूँ।”
योगी ने आशीर्वाद दिया और कहा —
“यदि तू वास्तव में मुक्त होना चाहती है, तो मोह को त्याग और आत्मा की साधना कर।
माया का अंत तभी होता है जब भीतर मोक्ष की ज्योति जलती है।”
उस दिन से वह यक्षिणी उसी स्थान पर तप में लीन हो गई।
ये केवल कथा नहीं, एक चेतावनी है
यह कथा केवल एक योगी और यक्षिणी की कहानी नहीं है।
यह हमारे ही भीतर की कहानी है।
हर साधक के जीवन में “यक्षिणी” किसी न किसी रूप में आती है —
कभी वासना बनकर, कभी लोभ बनकर, कभी अहंकार बनकर।
और हर बार वो एक ही सवाल करती है —
“क्या तुम अडिग रह सकते हो?”
जो साधक इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, वही सच्चा योगी कहलाता है।
तप वही जो तृष्णा को जीत ले
यह कथा हमें याद दिलाती है कि….
माया जितनी भी सुन्दर हो, आत्मबल के आगे फीकी पड़ जाती है।
सच्चा योग वही है, जो हमें भीतर से मुक्त करे,
जो हमारे अंदर के मोह, तृष्णा और भ्रम को भस्म कर दे।
तो अगली बार जब जीवन किसी मोहक प्रस्ताव से हमें डगमगाने की कोशिश करे —
उस योगी को याद करना, जिसने आत्मज्ञान की लौ से यक्षिणी की माया को भी जला दिया।
अगर यह कथा आपको प्रेरणादायक लगी हो, तो अपने विचार अवश्य साझा करें।

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