हरिद्वार का मामला
रंग-बिरंगी पगड़ी पहन, रायफल और रिवॉल्वर से गोलियों की बौछार करते पूर्व विधायक प्रणव सिंह चैंपियन। दूसरी ओर, पुलिस के सामने पिस्टल लहराते निर्दलीय विधायक उमेश कुमार। हरिद्वार के खानपुर की राजनीति में यह दृश्य एक साजिशन गैंगवॉर का संकेत देता है। मामला सिर्फ चुनावी हार-जीत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह अब वर्चस्व और अपमान का बदला लेने की लड़ाई बन चुका है।
कहां से शुरू हुआ विवाद?
प्रणव सिंह चैंपियन, जो कभी खानपुर विधानसभा सीट से चार बार विधायक रह चुके हैं, ने 2022 के विधानसभा चुनाव में अपनी पत्नी देवयानी सिंह को BJP उम्मीदवार बनवाया। वहीं, निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे उमेश कुमार ने हेलिकॉप्टर निशान और अपनी कड़ी रणनीति से चुनाव जीता।
चुनाव के बाद से ही सोशल मीडिया पर गाली-गलौज और व्यक्तिगत हमलों का सिलसिला शुरू हुआ। हार का गुस्सा और अपमान की भावना इतनी बढ़ी कि 26 जनवरी को मामला गोलियों की गूंज में बदल गया।
विवाद का नया मोड़: दिनदहाड़े फायरिंग
रुड़की नगर निगम चुनाव में उमेश कुमार की समर्थित उम्मीदवार की हार के बाद मामला और भड़क गया। 25 जनवरी को प्रणव सिंह ने सोशल मीडिया पर अपमानजनक टिप्पणी की। इसके जवाब में उमेश कुमार उनके घर के बाहर लाइव वीडियो बनाकर चुनौती देने पहुंच गए।
26 जनवरी को प्रणव ने तीन गाड़ियों के साथ उमेश के कैंप ऑफिस पर हमला कर दिया। करीब 50 राउंड फायरिंग हुई और ऑफिस में तोड़फोड़ की गई। उमेश ने पलटवार करने की चेतावनी दी और मामला पूरी तरह से गैंगवॉर का रूप ले चुका है।
पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर सवाल
हरिद्वार पुलिस ने फायरिंग के वीडियो और शिकायत के बाद दोनों पक्षों के 5-5 लोगों को हिरासत में लिया। प्रणव सिंह को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया, लेकिन उमेश कुमार को सबूतों के अभाव में जमानत मिल गई।
यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि सोशल मीडिया पर जब गाली-गलौज और धमकियां चल रही थीं, तब पुलिस ने समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या पुलिस की यह सुस्ती नेताओं के रसूख और राजनीतिक दबाव का नतीजा है?
सियासी पार्टियां और जिम्मेदारी
BJP प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने इसे व्यक्तिगत रंजिश बताया और पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की सलाह दी। हालांकि, यह घटना पार्टी के लिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि ऐसे मामलों से पार्टी की छवि खराब होती है।
यह सिर्फ एक व्यक्तिगत विवाद नहीं
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि यह घटना राज्य की राजनीति में एक खतरनाक ट्रेंड को जन्म दे रही है। यह संघर्ष अब बाहुबली छवि का प्रतीक बन चुका है।
उत्तराखंड, जो संघर्षों के बाद अलग राज्य बना था, वहां इस तरह की हिंसक राजनीति चिंताजनक है। यह घटना न केवल राज्य की शांति और सुरक्षा पर सवाल खड़े करती है, बल्कि प्रशासन की नाकामी भी उजागर करती है।
यह घटना सिर्फ नेताओं के अहंकार और सत्ता की भूख को नहीं दिखाती, बल्कि एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि जनता के प्रतिनिधि अपने निजी विवादों के लिए राज्य की सुरक्षा और गरिमा को दांव पर लगा रहे हैं। लोकतंत्र में इस तरह की हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे सख्त कदम उठाएं और इस तरह के मामलों में तुरंत कार्रवाई करें। क्योंकि अगर इस पर रोक नहीं लगी, तो उत्तराखंड की राजनीति बाहुबलियों का अखाड़ा बन जाएगी।
क्या लोकतंत्र के इन प्रतिनिधियों का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत वर्चस्व की लड़ाई है? और क्या जनता इस तरह के नेताओं को अपना समर्थन देना बंद करेगी?
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