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बुलडोज़र की धार और मज़हब का सवाल ; असम के कचुटौली में इंसाफ की तलाश में जख्मी गांव

“मेरे बेटे को मारा, मेरा घर गिराया… और इंसाफ?”
जब मकबूल हुसैन ये कहते हैं, तो उनके लहजे में सिर्फ ग़ुस्सा नहीं, एक टूटी हुई उम्मीद भी होती है — उम्मीद उस सिस्टम से, जो उनके सवालों से कन्नी काट रहा है।

12 सितंबर 2024, असम के सोनापुर के कचुटौली गांव में वह तारीख बन गई जिसे गांववालों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। सरकार की ‘बुलडोज़र नीति’ ने यहां एक अलग ही रंग ओढ़ लिया — और इसी रंग में सवाल उठे कि क्या ये कार्रवाई कानून के नाम पर सिर्फ एक समुदाय को कुचलने की कोशिश थी?

घरों पर वार, और दिलों पर भी

कचुटौली में 340 से ज़्यादा मकानों को अवैध बताकर ढहा दिया गया। आधिकारिक बयान में कहा गया कि यह आदिवासियों की रिजर्व जमीन है और अवैध कब्जा हटाना ज़रूरी था। लेकिन जिनकी झोंपड़ियाँ टूटीं, उनके पास मियादी पट्टे, राशन कार्ड, वोटर आईडी और यहां तक कि NRC क्लियरेंस तक थे।

गांववालों का आरोप साफ है:

“हिंदू भी थे, लेकिन तोड़ा सिर्फ मुसलमानों को।”

ये बात सिर्फ आरोप नहीं, एक पैटर्न की तरह सामने आती है जब हिंदू परिवारों ने खुद कहा कि उनके पास भी जमीन के वैध कागज़ हैं, लेकिन प्रशासन ने उन्हें नहीं छुआ।

जब लातों से जवाब मिला

गांव में 9 सितंबर को पहली बार बुलडोज़र चला। लोग टेंट लगाकर खाने बैठे थे कि पुलिस आई और मेज को लात मार दी। गुस्सा भड़का। लोगों ने विरोध किया और पुलिस ने गोली चलाई।

17-18 साल का जुबाहिर अली और 22 वर्षीय हैदर अली — दो युवा, जो उस हिंसा में मारे गए। कोई मुकदमा नहीं, न कोई पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट। सिर्फ एक धमकी:

“अगर ज़्यादा बोले तो जेल में डाल देंगे।”

संविधान या सत्ता?

यह मामला सिर्फ सरकारी ज़मीन की नहीं, संवैधानिक अधिकारों की भी है। जब सुप्रीम कोर्ट ने 1 अक्टूबर तक सभी तरह की बेदखली और बुलडोज़र कार्रवाई पर रोक लगाई थी, तब 24 और 25 सितंबर को कचुटौली में फिर मकान तोड़े गए।

क्या ये अवमानना नहीं?
वकील A.R. भुइया के मुताबिक,

“जिन लोगों की तरफ से हम कोर्ट गए हैं, सभी मुस्लिम समुदाय से हैं। कार्रवाई एकतरफा है।”

बदलते गांव, बदलती ज़ुबानें

जहां पहले हिंदू और मुस्लिम परिवार साथ रहते थे, अब वहां फासले हैं। डर है। हिंदू परिवार कैमरे पर कुछ बोलने से मना कर देते हैं। पंचायत सदस्य चुप हैं, प्रशासन चुनाव का हवाला देता है।

लेकिन गांव के पूर्व पंचायत सदस्य मेन उल चौधरी खुलकर कहते हैं:

“ये बुलडोज़र नहीं, सांप्रदायिक नफरत की मशीन है।”

प्रशासन की सफाई बनाम ज़मीनी हकीकत

डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर बिश्वजीत साकिया के अनुसार:

“सिर्फ उन्हीं लोगों पर कार्रवाई हुई जिनके पास रहने का वैध अधिकार नहीं था।”

लेकिन सवाल उठता है — जब हिंदू और मुस्लिम दोनों के पास ‘मियादी कागज़’ थे, तो कार्रवाई सिर्फ एक पक्ष पर क्यों हुई?

भाजपा का बयान: ‘पैटर्न’ का पर्दाफाश या प्रचार?

भाजपा प्रवक्ता किशोर उपाध्याय कहते हैं:

“कुछ समुदाय के लोग कई जगह कब्जा कर लेते हैं और फिर हर जगह वोटर कार्ड बनवा लेते हैं। कार्रवाई ज़रूरी थी।”

यह बात प्रशासनिक लग सकती है, लेकिन जब इसका उपयोग एक समुदाय को ‘बाहरी’ बताकर किया जाए, तो यह प्रशासन से ज़्यादा प्रचार जैसा लगता है।

 ये सिर्फ जमीन नहीं, भरोसे की लड़ाई है

कचुटौली में जो हुआ, वो महज़ एक गांव की कहानी नहीं है — ये एक पैटर्न का हिस्सा है जो पूरे देश में उभर रहा है। बुलडोज़र अब सिर्फ इमारतों पर नहीं, लोगों के विश्वास और संवैधानिक अधिकारों पर भी चल रहा है। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को दरकिनार किया जाए, और जवाबदेही की जगह सिर्फ बयानबाज़ी हो — तो लोकतंत्र की नींव हिलती है।

यह जरूरी है कि हम यह पूछें:

  • क्या वाकई ये कानून की कार्रवाई थी?

  • या फिर एक समुदाय को डराने और हाशिए पर धकेलने की कोशिश?

कचुटौली आज सवालों के मलबे पर खड़ा है। और इन सवालों का जवाब हमें ही तलाशना होगा — न लाठी से, न बुलडोज़र से, बल्कि संविधान से।