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सैयद हुसैन विजयालक्ष्मी पंडित

सियासत के नाम पर अधूरी प्रेम कहानी: सैयद हुसैन विजयालक्ष्मी पंडित

प्रेम,इश्क,मोहब्बत…यह एक ऐसा जज्बा है, जो हर एक में होता है ,और उसे महसूस भी करता है।लेकिन कुछ लोगो के प्रेम की कहानियां कभी अमर हो जाती हैं, कभी चर्चित रहती हैं, तो कभी साथ छूटने के गम में उम्रभर की कसक बनकर रह जाती है।
शीरी फरहाद, रोमियो जूलियट, लैला मजनू जैसे कई प्रेमियों की कहानियां अधूरी रहीं।इनको समाज ने एक नहीं होने ही दिया। ऐसे ही प्रेमियों के नाम की फेहरिस्त में यदि हम सैयद हुसैन और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी पंडित का नाम शुमार करें तो शायद अतिशयोक्ति नही होगी।एक ऐसा अनसुना फसाना जो आज भी कुछ लोग ही जानते है।
सैयद हुसैन एकमात्र ऐसे भारतीय है, जिनकी कब्र मिस्र की राजधानी काहिरा के कब्रिस्तान अलहराथा में आज भी मौजूद है।
मिस्र की राजधानी काहीरा के कब्रिस्तान अलहराथा में दफन सैयद हुसैन कोई मामूली व्यक्तित्व नहीं था। वे उस वक्त के सबसे बड़े नेता, पत्रकार और देश प्रेमी थे।जिन्होंने विदेश में रहकर देश की आजादी के लिए काम किया।
“A forgotten ambassador in Cairo” पुस्तक के लेखक एन. एस. विनोद ने सैयद हुसैन को आकर्षक, विद्वान, सुसंस्कृत,अपनी वाणी से सुनने वाले को मंत्र मुग्ध कर देने वाले,असाधारण लेखक,और देशप्रेमी बताया है। इतिहास में उनकी उपलब्धियों को आजादी के इतिहास में भी शायद इसलिए नजरअंदाज किया गया,क्योंकि उन्हें उस वक्त के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की बेटी से प्यार हो गया था।
उन्होंने अपनी पढ़ाई अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पूरी की ,और बैरिस्टर बनने इंग्लैंड तो गए, पर वहां उन्होंने बैरिस्टर बनने के बजाय पत्रकार बनना पसंद किया ।1916 में वह भारत आए और एक महीने बाद ही मुंबई के क्रॉनिकल अखबार में उप संपादक के रूप में उन्होंने काम शुरू किया। उनकी लेखनी अंग्रेजों के खिलाफ चलती थी ।उनके लेख लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। उनके इन लेखों की ओर मोतीलाल नेहरू और गांधी जी का भी ध्यान गया था ।सन 1919 की जनवरी को मोतीलाल नेहरू ने उन्हें उनके घर इलाहाबाद के आनंद भवन से प्रकाशित होते, “द इंडिपेंडेंट” अखबार के लिए आमंत्रित किया ,और उन्हें ₹1500 वेतन के साथ संपादक पद दिया। यह वेतन उस समय बहुत बड़ी रकम माना जाता था।इलाहाबाद में उनके रहने का कोई इंतजाम न होने के कारण कुछ समय वे आनंद भवन में ही ठहरे।आनंद भवन में रहने की वजह से मोतीलाल नेहरू के परिवार से वे घुलमिल गए थे।यहां पर उनकी मुलाकात अक्सर मोतीलाल नेहरू की बेटी और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी से होती रहती थी। 19 साल की विजयालक्ष्मी से सैयद हुसैन 12 साल बड़े थे। उसी समय लंदन में होने जा रहे खिलाफत कांग्रेस के लिए उन्हें चुन लिया गया था ।सैयद हुसैन और विजयालक्ष्मी के बीच का प्यार परवान चढ़ चुका था। प्राप्त जानकारी के अनुसार दोनों ने सैयद हुसैन के लंदन जाने से पहले मुस्लिम रीति रिवाज के अनुसार गुपचुप निकाह भी कर लिया था।
जब मोतीलाल नेहरू को इस बारे में पता चला तो उन्होंने पूरा घर सर पर उठा लिया ।यहां तक की नेहरू भी अपनी बहन की इस शादी से नाखुश थे।उसके बाद शायद जीवन भर दोनो भाई बहन के रिश्ते कुपचक्रिक रहे। खैर…विजयालक्ष्मी जिस खुले वातावरण में पली बढ़ी थी, उसके लिए इस प्रकार की शादी कोई अजूबा नहीं था ।लेकिन परिवार में अभी भी पुराने रिवाज थे। विजयलक्ष्मी ने अपनी आत्मकथा “द स्कोप ऑफ़ हैप्पीनेस” में इस बात का जिक्र किया है । पाकिस्तान के पत्रकार एम. अब्बासी ने डेली न्यूज़ के 17 नवंबर 1971 में लिखे अपने लेख “लव लाइफ ऑफ़ मिसीस पंडित” में उल्लेख किया है।उनका कहना है कि, उनके दादा रशीद फखरी ने सैयद हुसैन और विजयालक्ष्मी का निकाह पढवाया था। जवाहरलाल नेहरू को जब इस निकाह से संबंधित फाइल मिली तो एम. ओ. मथाई के पुस्तक “Remonances of Nehru Age” के अनुसार नेहरू ने इस फाइल को उन्ही के हाथों जलवा दिया था।
सन 1919 की18 दिसंबर को सैयद हुसैन ने “द इंडिपेंडेंट” से इस्तीफा दे दिया,और तुरंत खिलाफत कमेटी की कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए वह अमृतसर चले गए ।इस अधिवेशन में महात्मा गांधी और मोतीलाल नेहरू भी थे। इन दोनों ने इस शादी को तोड़ने के लिए उनको शायद मनाया हो। महात्मा गांधी ने उनको तब तक इंग्लैंड में रहने का सुझाव दिया जब तक यह पूरा मामला ठंडा नहीं हो जाता। अधिवेशन खत्म होने के बाद महात्मा गांधी आनंद भवन गए और वहां पर उन्होंने विजयालक्ष्मी को अपने साथ साबरमती भेजने की बात कही। विजयालक्ष्मी साबरमती आश्रम गई।पर वहां का माहौल,सादगी,सादा भोजन, वहां के नियम रास नहीं आए।
सैयद के जाने के बाद महाराष्ट्र के सारस्वत ब्राह्मण रणजीत पंडित से उनकी सगाई कर दी गई। 9 मई 1921 के रोज गांधी जी और अन्य महानुभावों की मौजूदगी में उनकी शादी हुई। इधर सैयद हुसैन 26 सालों तक भारत नहीं आए ।भारत की आजादी की लड़ाई लंदन और फिर अमेरिका में लड़ते रहे ।इस बीच अलग-अलग अखबारों में संपादकीय पद पर काम करते रहे। वे अविभाजित भारत के पक्षधर थे। वह मानते थे कि भारत की संस्कृति हिंदू, मुस्लिम, नहीं है बल्कि पूरी तरह भारतीय है ।उनका सपना था कि एक ऐसा राष्ट्र हो जहां हिंदू मुस्लिम सभी को समान अधिकार प्राप्त हों। सन 1945 में जब विजयलक्ष्मी पंडित अमेरिका गई, तब 26 साल बाद वह अपने इस पुराने प्रेमी सैयद हुसैन से मिली।
सैयद हुसैन ने वापस भारत आने की इच्छा जताते हुए नेहरू को पत्र लिखा था, लेकिन नेहरू ने इसका ठंडक से जवाब देते हुए कहा कि आप वहीं रहकर अच्छा काम कर सकते हैं। एम. ओ. मथाई के अनुसार नेहरू का यह जवाब इसलिए था ताकि विजयालक्ष्मी पंडित और सैयद पुनः ना मिल सके, और फिर से उनके प्रेम के चर्चे शुरू न हो ।नेहरू और गांधी जी के द्वारा मखमल में लपेटकर किए गए इनकार के बावजूद सैयद हुसैन 1946 में भारत आए। उस वक्त विजयालक्ष्मी पंडित उत्तर प्रदेश की सरकार में मंत्री थी ।करीब 2 साल पहले उनके पति रणजीत पंडित का निधन हो गया था। विजयालक्ष्मी पंडित जब भी दिल्ली आती थी, वह अपने भाई पंडित नेहरू के घर ठहरती थी। इधर सैयद भारत आ चुके थे, और अब उन्होंने नेहरू के घर के चक्कर काटने शुरू कर दिए थे। विजयालक्ष्मी पंडित और सैयद हुसैन एक बार फिर से एक होने लगे थे।
नेहरू को यह बात रास नहीं आई । उन्होंने विजयालक्ष्मी को बतौर एंबेसेडर रशिया भेज दिया।रशिया में वे पहली भारतीय राजदूत थी। मंत्रिमंडल के सदस्यों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन नेहरू नहीं माने। वही सैयद हुसैन को मिस्र की राजधानी काहीरा में भारत के पहले राजदूत के रूप में भेज दिया। नेहरू की मंशा यह थी कि ऐसा करने से आसानी से दोनों मिल नहीं पाएंगे।
3 मार्च 1948 को मिस्र के सम्राट एम. एम. फारूख से मिलने जब सैयद हुसैन गए तो उन्हें परंपरा अनुसार चार घोड़ों वाली बग्गी में एक जुलूस के रूप में सम्राट के आबदीन पैलेस ले जाया गया। गार्ड ऑफ़ ओनर के साथ उनका सम्मान किया गया। सरकार द्वारा आवंटित अपने घर में नहीं,वरन होटल में वे रहते थे ।
एक वर्ष के अंदर दिल के दौरे से 61 साल की उम्र में काहिरा में उनका निधन हो गया। उन्हें पूरे सैनिक सम्मान के साथ वहां दफनाया गया । मिस्र की सरकार ने एक सड़क का नाम भी उनके नाम पर रखा है। 1949 में नेहरू ने उनकी कब्र पर फूल चढ़ाए। कुछ समय बाद विजयालक्ष्मी पंडित संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थाई प्रतिनिधि के रूप में चुनी गई। न्यूयोर्क की यात्रा के दौरान अक्सर वे काहिरा में रुकती थी, और सैयद की कब्र पर फूल चढ़ाती थी।
ये प्यार का अफसाना अधूरा रहा।सैयद हुसैन और विजयालक्ष्मी कभी एक नही हो पाए।इनकी किस्मत में बस था, तो केवल इंतजार।