अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, भारतीय शिक्षा व्यवस्था और संविधान के तहत धार्मिक संस्थाओं की स्थिति को लेकर एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंच चुका है। 8 नवंबर को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1967 के अपने पुराने फैसले को पलटते हुए इस मामले को एक नई तीन जजों की बेंच को सौंप दिया। यह निर्णय AMU के भविष्य को परिभाषित करने में अहम साबित हो सकता है।
1967 का पुराना विवाद: AMU का अल्पसंख्यक दर्जा
1967 में सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने से मना कर दिया था। तब अदालत ने यह तर्क दिया था कि AMU का गठन भारतीय राज्य द्वारा किया गया था, और इसे एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित किया गया था। कोर्ट ने यह भी कहा था कि संस्थान की स्थापना मुस्लिम समुदाय द्वारा नहीं की गई थी, और न ही इसका संचालन इस समुदाय के हाथों में था। यह फैसला तब ‘अजीज बाशा बनाम केंद्र सरकार’ के मामले में सुनाया गया था, जब AMU प्रशासन ने दावा किया था कि यह विश्वविद्यालय मुस्लिम समुदाय के हित में स्थापित किया गया था, और इसके अल्पसंख्यक दर्जे की मांग की थी।
2023 का नया मोड़: अदालत का रुख बदलने के संकेत
अब, 8 नवंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पुराने फैसले को पलटते हुए, इस मामले को एक नई तीन जजों की बेंच को सौंप दिया है। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह माना कि केवल यह आधार कि AMU एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, यह पर्याप्त नहीं है कि इसे अल्पसंख्यक दर्जा न दिया जाए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर यह साबित होता है कि AMU की स्थापना में मुस्लिम समुदाय का प्रमुख योगदान था, तो यह विश्वविद्यालय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में अपनी पहचान कायम कर सकता है।
केस की जटिलता: इतिहास और तथ्य
इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया है कि नई बेंच यह जांचे कि AMU की स्थापना के पीछे किसका हाथ था और कौन से समुदाय ने इसका गठन किया। अदालत ने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं कि कोई संस्थान केवल अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया जाए; इसके प्रशासन में अल्पसंख्यकों की मौजूदगी ही जरूरी नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अपने संस्थान स्थापित करने का अधिकार देता है, लेकिन इसके लिए यह प्रमाणित होना चाहिए कि संस्थान की स्थापना और उसका संचालन अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा किया गया है।
ऐतिहासिक संदर्भ और विवाद
AMU का यह विवाद 2005 से शुरू हुआ था, जब विश्वविद्यालय ने अपने मेडिकल कॉलेज में मुस्लिम छात्रों के लिए 50% सीटें आरक्षित करने की घोषणा की थी। यह कदम हिंदू छात्र संगठनों के विरोध का कारण बना और इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामला दायर किया गया। हाईकोर्ट ने AMU को अल्पसंख्यक दर्जा देने का विरोध किया और कहा कि 1967 के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में इस मामले को 7 जजों की बेंच को सौंपा, और अब एक नई बेंच इसकी सुनवाई करेगी।
सुप्रीम कोर्ट का असहमति पक्ष
इस फैसले के खिलाफ तीन जजों ने असहमति जताई। न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एससी शर्मा ने यह कहा कि किसी संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा तभी मिल सकता है, जब वह संस्था अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित और संचालित की जाए। उनके मुताबिक, सिर्फ इसलिए कि AMU को केंद्रीय कानून के तहत स्थापित किया गया है, इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
यह विवाद केवल एक विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान, शैक्षिक अधिकारों और समानता के सिद्धांतों के बीच का तनाव है। AMU का मामला यह सवाल उठाता है कि क्या कोई संस्थान, जो धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक समुदाय के हित में स्थापित किया गया हो, उसे संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा मिलना चाहिए, या उसे इस दर्जे से वंचित किया जाए यदि वह सरकारी नियंत्रण में आता है?
इस फैसले से यह भी साफ हो जाएगा कि भारत में शिक्षा के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों के बीच संतुलन कैसे बैठता है। मेरी राय में, सुप्रीम कोर्ट का यह कदम संवैधानिक मूल्यों की पुनः समीक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण है, लेकिन यह भी जरूरी है कि इसके निर्णय से अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, और यह सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षा प्रणाली में हर समुदाय को समान अवसर मिले।
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला भारत की शिक्षा नीति और धार्मिक संस्थाओं की भूमिका पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इस फैसले का असर न केवल AMU पर, बल्कि पूरे देश में अल्पसंख्यक समुदायों के शैक्षिक अधिकारों पर भी पड़ेगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि न्यायपालिका इस मुद्दे पर एक संतुलित और समावेशी दृष्टिकोण अपनाएगी, जिससे हर भारतीय नागरिक को समान अवसर मिल सकें।
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