हालही में सारा अली खान की OTT पर रिलीज हुई फ़िल्म “ए वतन मेरे वतन” की कहानी एक स्वतंत्रता सेनानी पद्मविभूषण सम्मान से नवाज़ी गई महिला के जीवन पर आधारित है ,कौन थी वह महिला?
OTT एक एसा प्लेटफार्म है, जहां पर हर प्रकार की फिल्में रिलीज होती है। कई बार तो फिल्म जिस व्यक्तित्व पर आधारित होती है, उसे न्याय नहीं दे पाती। ऐसी ही एक फिल्म है, “ए वतन मेरे वतन”। यह फिल्म जिस व्यक्ति पर आधारित है, वह व्यक्ति है, पद्मविभूषण स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता। जिनकी 25 मार्च को 104वीं पुण्यतिथि है।
गांधीजी के मंत्र ,”करो या मरो” को आत्मसात करने वाली उषा मेहता ने उस वक्त निजी रेडियो स्टेशन की शुरुआत की, जब ब्रिटिशर्स ने अखबारों को सेंसर कर रखा था, एक तरह से गला ही घोंट दिया था। जो खबरें छप नही सकती थी, वे रेडियो स्टेशन पर प्रसारित होती थी। इस साहस के समय उषा मेहता की उम्र महज़ 22 साल थी। 8 अगस्त 1942 को देर रात मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में हुई सभा में गांधीजी ने मंत्र दिया,”do or die, करो या मरो”। दूसरे दिन गांधीजी और अन्य नेताओं की धरपकड़ हुई। तभी 22 वर्षीय उषा मेहता ने अपने साथियों विट्ठल भाई जवेरी, और हिम्मत भाई जवेरी के साथ एक अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन शुरू करना तय किया, क्योंकि उन्हें पता था कि राजनीतिक संग्रामों में रेडियो एक बहुत ही शक्तिशाली माध्यम रहा है। इस अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन को संभालने के जिम्मेदारी उषा मेहता ने स्वयं ली। इस गुप्त रेडियो को नाम दिया “कांग्रेस रेडियो”।
14 अगस्त 1942 के रोज कांग्रेस रेडियो स्टेशन लाइव हो गया, और उषा मेहता ने माइक्रोफोन पर बोलने की शुरुआत की,” दिस इस कांग्रेस रेडियो कॉलिंग ऑन 42.34 मीटर्स फ्रॉम समव्हेयर इन इंडिया”। शुरुआत में एक बार फिर सुबह शाम दो बार इस रेडियो से हिन्दी और अंग्रेजी में प्रसारण होने लगा। क्विट इंडिया मूवमेंट के भाग रूप जमशेदपुर में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के मजदूरों की हड़ताल, कांग्रेस नेताओं की धर पकड़, पुलिस की गोलीबारी, चित्तागोंग में ब्रिटिश आर्मी पर जापान की एयर स्ट्राइक, जैसी खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह उषा मेहता प्रसारित करने लगी थी।
अंग्रेज सरकार में इस रेडियो से हड़कंप मच गया था। कांग्रेस रेडियो से गांधी जी और अन्य नेताओं के बर्निंग भाषण प्रसारित होते थे। इस रेडियो के जरिए उन्होंने गांधीजी की स्वतंत्रता की मशाल को प्रज्वलित रखा। अंग्रेज सरकार इस गुप्त रेडियो का नष्ट कर देना चाहती थी, और दिन-रात इन लोगों को ढूंढने की कोशिश जारी थी। उनसे बचने वे जगह बदलती रहती थी। लेकिन कब तक भागती? उनकी टीम में से ही कोई फूट गया और उनकी खबर अंग्रेज पुलिस को दे दी। जिसका पता लगते ही उन्होंने सभी साथियों को भगा दिया, और स्वयं पुलिस के हाथो गिरफ्तार हुई। 4 साल तक उन्हें जेल में रहना पड़ा। मार्च 1946 में वे मुक्त हुई।
उन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश को आजाद होते हुए देखा। आजादी के बाद हुए बंटवारे से वे बहुत दुखी थी। आजाद भारत में उन्होंने “गांधीजी की सामाजिक और राजकीय विचारधारा” विषय पर पीएचडी की, और यूनिवर्सिटी आफ मुंबई के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में इंचार्ज पद पर कार्य करती रही। विल्सन कॉलेज में उन्होंने 30 साल तक शिक्षक के रूप में काम किया। सन् 1998 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण की खिताब से सम्मानित किया। वे हमेशा बस में ही सफर किया करती थीं ।सुबह 4:00 बजे से देर रात तक काम करना यह उनकी जीवनचर्या थी। वे आजीवन अविवाहित रही। 11 अगस्त 2000 के रोज़ 80 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ।
आज वे हमारे बीच नही है। शायद कई लोगों को तो पता भी नहीं होगा की गुप्त रेडियो स्टेशन द्वारा ब्रिटिश को दौड़ाने वाली उषा मेहता नाम की एक शख्शियत भी थी। ऐसे बेनामी स्वतंत्रता सेनानियों को हम प्रणाम करते है।
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