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Wednesday, March 19   12:41:50
barfi devi hariyana

सरकारी सिस्टम की कछुआ चाल, आजाद हिंद फौज के सिपाही की विधवा ने हक की लड़ाई में तोड़ा दम

8 नवंबर 2024 का दिन, जब हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले में एक और स्वतंत्रता सेनानी की कहानी इतिहास में दफन हो गई। 95 साल की उम्र में बर्फी देवी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनके साथ-साथ एक सवाल भी अनसुलझा रह गया—क्या यह देश अपने स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की कद्र करता है?

यह कहानी उनके दिवंगत पति सुल्तान राम से शुरू होती है, जो 1940 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज का हिस्सा बने। 1944 में फ्रांस में पकड़े जाने के बाद उन्होंने साढ़े तीन साल तक जेल की यातनाएं सही। 1947 में जब देश आजाद हुआ, सुल्तान राम भी जेल से बाहर आए।

साल 1972 में उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिलनी शुरू हुई, जो 2011 तक चलती रही। लेकिन इसके बाद “जीवन प्रमाण पत्र” अपडेट न होने के कारण पेंशन बंद हो गई। अगले ही साल, 2012 में, सुल्तान राम का निधन हो गया।

नियमों के अनुसार, स्वतंत्रता सेनानी के निधन के बाद उनकी विधवा को पेंशन मिलनी चाहिए थी। लेकिन, बर्फी देवी के हिस्से में आई सरकारी दफ्तरों की लापरवाहियां। उनके पति का नाम सुल्तान राम और उनका अपना नाम र्फी देवी सरकारी फाइलों में गुम हो गए।

यह मामला केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) और हरियाणा प्रशासन के बीच फंसा रहा। सवाल इतने सरल थे कि उन्हें सुलझाने में हफ्ते लगने चाहिए थे, लेकिन इसके जवाब पाने में 12 साल लग गए। हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार पर दो बार जुर्माना लगाया—पहले 15,000 रुपये और फिर 25,000 रुपये—लेकिन कार्रवाई की रफ्तार नहीं बढ़ी।

बर्फी देवी ने हार नहीं मानी। उन्होंने सितंबर 2023 में पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने 13 दिसंबर को मामले की सुनवाई तय की। लेकिन इससे पहले, न्याय की इस धीमी प्रक्रिया से निराश होकर, बर्फी देवी 8 नवंबर को दुनिया से रुखसत हो गईं।

आजादी की कीमत कौन चुकाएगा?

यह सिर्फ बर्फी देवी की कहानी नहीं है। यह उन हजारों परिवारों का सच है, जो स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी के बावजूद अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। एक महिला, जिसने अपना पूरा जीवन अपने पति की स्मृतियों और उनके संघर्ष को जिंदा रखने में बिता दिया, अपने हिस्से का न्याय देखे बिना चली गई।

बर्फी देवी की मृत्यु के बाद भी सवाल कायम हैं। 13 दिसंबर को हाई कोर्ट में सुनवाई जरूर होगी, लेकिन क्या यह सचमुच इस देश के लिए शर्मिंदगी का कारण नहीं कि जिनके बलिदान पर यह स्वतंत्रता टिकी है, उनके अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ती है?

बर्फी देवी अब नहीं रहीं, लेकिन उनकी कहानी उन लाखों दिलों में एक सवाल छोड़ गई है—क्या यह देश अपने नायकों और उनके परिवारों का सम्मान कर सकता है?