महाराष्ट्र की सियासत में हलचल मचाते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवसेना (शिंदे गुट) से छीनकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने नेता देवेंद्र फडणवीस को सौंप दी है। यह घटनाक्रम 2022 में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद शिंदे की नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक स्थायित्व पर सवाल खड़ा करता है।
शिंदे से क्यों छिनी मुख्यमंत्री की कुर्सी?
जब 2022 में एकनाथ शिंदे ने शिवसेना (उद्धव गुट) से बगावत की थी, तब उनके पास बीजेपी से कम सीटें थीं, फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंपा गया। लेकिन, हालिया विधानसभा चुनाव में शिंदे की पार्टी ने 57 सीटें जीतीं, जिनमें से कुछ बीजेपी के समर्थन से आई थीं। इस बार बीजेपी ने सीटों के अनुपात का तर्क देते हुए मुख्यमंत्री पद का दावा किया और फडणवीस को मुख्यमंत्री बना दिया।
बीजेपी के खिलाफ क्यों नहीं खड़ा हो सके शिंदे?
शिंदे के लिए बीजेपी से बगावत करना कठिन है क्योंकि:
- निर्दलीय विधायकों पर बीजेपी की पकड़: शिंदे गुट के टिकट पर चुनाव जीते 4 निर्दलीय विधायकों और बीजेपी के प्रति निष्ठावान 14 विधायकों का समर्थन खोने का खतरा है।
- पार्टी के भीतर असंतोष: शिंदे को विधायकों और पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच मजबूत पकड़ नहीं बना पाने का नुकसान हो रहा है।
नीतीश कुमार बनाम शिंदे: तुलना क्यों हो रही है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर चुनाव से पहले एनडीए और अपने सहयोगियों से मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पक्की कर लेते हैं। साल 2020 में भी बीजेपी ने विधानसभा चुनाव उनके चेहरे पर लड़ा। इसके उलट, शिंदे मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी तय नहीं कर सके।
अजित पवार के आने से बिगड़ा समीकरण
जब 2023 में एनसीपी नेता अजित पवार और उनके समर्थक बीजेपी में शामिल हुए, तब से शिंदे पर राजनीतिक दबाव बढ़ गया। अजित पवार के आने से शिंदे का प्रभाव कम हुआ और बीजेपी को बहुमत के लिए उनके समर्थन की आवश्यकता खत्म हो गई।
क्या फडणवीस ने शिंदे का कद छोटा करने की साजिश रची?
फडणवीस ने 2022 से ही अपनी स्थिति मजबूत करने पर ध्यान दिया। डिप्टी सीएम रहते हुए भी उन्होंने कई बड़ी रैलियां कीं और 2024 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी का चेहरा बने। शिंदे के राजनीतिक कद को कमजोर करने के लिए अजित पवार को शामिल करना और चुनावी रैलियों में खुद को प्रमुख बनाना, फडणवीस की सोची-समझी रणनीति मानी जा रही है।
शिंदे का मुख्यमंत्री पद से हटना उनके राजनीतिक करियर के लिए एक बड़ा झटका है। जहां एक ओर बीजेपी ने महाराष्ट्र में अपनी पकड़ और मजबूत की है, वहीं शिंदे को अब अपनी पार्टी और नेतृत्व को पुनर्गठित करने की जरूरत है। क्या शिंदे अब बीजेपी से स्वतंत्र होकर अपनी सियासी विरासत को बचा पाएंगे, या वे इसी तरह बीजेपी के दबाव में रहेंगे? इसका जवाब समय के साथ मिलेगा।
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