वक्फ (संशोधन) कानून पर मचा बवाल अब केवल एक राजनीतिक बहस नहीं, बल्कि सामाजिक अस्थिरता और सांप्रदायिक तनाव की आग बन चुका है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से लेकर दक्षिण 24 परगना और दिल्ली तक इस विवाद ने कानून की आड़ में ज़मीनी शांति को हिला कर रख दिया है। सवाल ये नहीं है कि कौन सही है और कौन ग़लत – असली सवाल यह है कि क्या कोई भी सत्ता या संस्था जनता की आवाज़ सुन रही है?
बंगाल बना बारूद का ढेर: वक्फ कानून के खिलाफ हिंसा की चपेट में कई ज़िले
8 अप्रैल से शुरू हुआ विरोध अब बेकाबू हो चला है। शोणपुर (दक्षिण 24 परगना) में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव इतना बढ़ा कि पुलिस की गाड़ियों में आग लगा दी गई, हाईवे जाम कर दिया गया और कैदियों की वैन पलटा दी गई। लाठीचार्ज हुआ, tear gas छोड़ी गई और भीड़ हिंसक हो उठी। ये सब कुछ सिर्फ़ इसलिए कि लोग एक कानून को “अन्यायपूर्ण” मानते हैं और सुनवाई नहीं हो रही।
ISF (इंडियन सेक्युलर फ्रंट) के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में ये प्रदर्शन रामलीला मैदान की रैली की तैयारी का हिस्सा थे। विधायक नौशाद सिद्दीकी ने सीधे-सीधे BJP और TMC पर वोट बैंक की राजनीति का आरोप लगाते हुए कहा कि “धर्म को औजार बनाया जा रहा है, विकास कहीं नहीं।”
मुर्शिदाबाद: तीन मौतें, सैकड़ों गिरफ्तार, डर से पलायन
मुर्शिदाबाद में हालात इतने बिगड़े कि 12 अप्रैल को उग्र भीड़ ने पिता-पुत्र (हरगोविंद दास और चंदन दास) को पीट-पीटकर मार डाला। ये दोनों मूर्तिकार थे – एक ऐसा पेशा, जो खुद कला और शांति का प्रतीक होता है। उस पर हमला, बहुत कुछ कहता है।
19 विस्थापित परिवारों की वापसी ज़रूर एक राहत की खबर है, लेकिन क्या ये वापसी स्थायी है या सिर्फ अस्थायी सुकून?
ADG लॉ एंड ऑर्डर जावेद शमीम के अनुसार अब तक 210 गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। इंटरनेट बंद है, BNS की धारा 163 लागू है, और 1600 अर्धसैनिक बल तैनात किए जा चुके हैं।
सियासत या साजिश? TMC-BJP आमने-सामने
तृणमूल कांग्रेस ने इस हिंसा के पीछे बीजेपी और केंद्रीय एजेंसियों की “साज़िश” का आरोप लगाया है। TMC के नेता कुणाल घोष का कहना है कि BSF ने उपद्रवियों को बॉर्डर पार करवाया और हिंसा के बाद उन्हें सुरक्षित निकाला गया।
दूसरी ओर, बीजेपी नेता सुवेंदु अधिकारी ने इस मामले की NIA जांच की मांग की है और यहां तक कह दिया कि 2026 के विधानसभा चुनाव राष्ट्रपति शासन के तहत हों। सवाल उठता है – क्या ये राजनीति की बिसात पर रखी एक और चाल है?
दिल्ली से लेकर जम्मू-कश्मीर तक गूंजा विरोध, सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया गया
वक्फ कानून के खिलाफ अब राष्ट्रव्यापी आंदोलन का स्वरूप बन चुका है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 87 दिनों के “वक्फ बचाओ अभियान” की शुरुआत की है, जिसमें एक करोड़ लोगों के हस्ताक्षर PM को भेजे जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट में अब तक 17 याचिकाएं दायर हो चुकी हैं, जिनमें 10 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है। 16 अप्रैल को CJI संजीव खन्ना की अगुवाई में इन पर सुनवाई होगी।
कानून नहीं, संवाद चाहिए
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा ग़ायब है – संवाद। न केंद्र सरकार संवाद कर रही है, न राज्य सरकार। कानून चाहे कितना भी “उद्देश्यपूर्ण” क्यों न हो, अगर वह जनता में असुरक्षा पैदा कर रहा है, तो उसे समझाने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
वक्फ कानून का विरोध सिर्फ मुस्लिम समुदाय या वक्फ संपत्ति से जुड़ा मामला नहीं रह गया है, ये अब सामाजिक विश्वास और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की परीक्षा है।
इस आग को सुलगाने में राजनीति का हाथ है और बुझाने की ज़िम्मेदारी जनता के सेवकों की – लेकिन अफ़सोस, दोनों ही नाकाम साबित हो रहे हैं।
चाय की चुस्की या सियासी असंवेदनशीलता?
TMC सांसद यूसुफ पठान की “चाय पीते हुए फोटो” पर उठे विवाद ने मामले को और जटिल बना दिया। सोशल मीडिया पर ये सवाल उठ रहा है – जब राज्य जल रहा है, तब क्या नेताओं को चुपचाप ‘लाइव चाय सेशन’ करना चाहिए?
लोकतंत्र की जान – जनता की बात
हिंसा कभी हल नहीं होता। वक्फ कानून के समर्थन और विरोध दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन जिम्मेदारी भी उतनी ही ज़रूरी है।
इस मुद्दे पर अगर जल्द संवाद और स्पष्टता नहीं लाई गई, तो ये आग और भड़क सकती है – और इसकी कीमत सिर्फ़ बंगाल नहीं, पूरा देश चुका सकता है।
आप क्या सोचते हैं? क्या वक्फ कानून वाकई ज़रूरी है या सिर्फ़ एक सियासी चाल?
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