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West Bengal politics

पश्चिम बंगाल की सियासी उथल-पुथल

पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास के शुरुआती पन्ने बेहद अस्थिर राजनीति के हैं, आज़ादी मिली और देश का विभाजन हुआ तो बंगाल का भी विभाजन हुआ,पश्चिम बंगाल का हिस्सा भारत में रह गया और पूर्वी बंगाल का हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और बाद में पूर्वी पाकिस्तान कहलाया।दोनों ही ओर ख़ून ख़राबे के अलावा विस्थापन और शरणार्थियों की समस्याओं से रूबरू होना पड़ा।

पश्चिम बंगाल में आज़ादी के बाद से 1967 तक तो कांग्रेस का शासन रहा, आठ महीनों के लिए बांग्ला कांग्रेस के नेतृत्व में यूनाइटेड फ़्रंट ने सत्ता संभाली इसके बाद तीन महीने प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक गठबंधन ने राज किया फिर फ़रवरी 1968 से फ़रवरी 1969 तक एक साल राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा।

बमुश्किल एक साल (फ़रवरी 1969 से मार्च 1970 तक) बांग्ला कांग्रेस ने सत्ता संभाली फिर आगे के एक साल राष्ट्रपति शासन का रहा. अप्रैल 1971 से जून 1971 तक कांग्रेस ने राज्य में सत्ता संभाली लेकिन सरकार क़ायम न रह सकी और जून 1971 से मार्च 1972 तक फिर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।लेकिन इसके बाद का बंगाल का राजनीतिक इतिहास, कम से कम सत्ता प्रतिष्ठान की दृष्टि से स्थिरता का इतिहास दिखाता है।वर्ष 1972 के मार्च में इंदिरा गांधी के चहेते और बांग्लादेश के निर्माण काल के दौरान उनके सहयोगी रहे सिद्धार्थ शंकर रे ने सत्ता संभाली जो आपातकाल के दौरान और उसके बाद चुनाव होने तक सत्ता में रही।जून 1977 में जब आपातकाल के बाद देश में परिवर्तन की लहर चली तो पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का परिवर्तन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा या लेफ़्ट फ़्रंट ने सत्ता संभाली,ज्योति बसु राज्य के मुख्यमंत्री बने।वाममोर्चे की सरकार ने राज्य में भूमि सुधार जैसे असाधारण काम किए और आम लोगों को अधिकार संपन्न बनाने की कोशिश की।वाममोर्चे के जनोन्मुख नीतियों का इतना सकारात्मक असर हुआ और राज्य में कांग्रेस की स्थिति लगातार इतनी कमज़ोर होती गई कि अगले 34 सालों तक यानी वर्ष 2011 तक राज्य में वामपंथियों को सत्ता से कोई हटा नहीं पाया।

1947 से 1977 तक जहाँ राज्य में सात मुख्यमंत्री बदले और तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा वहीं 1977 से 2011 तक वाममोर्चा के सिर्फ़ दो मुख्यमंत्रियों ने कामकाज संभाला।पहले ज्योति बसु 21 जून 1977 से छह नवंबर 2000 तक मुख्यमंत्री रहे फिर अपनी उम्र का हवाला देते हुए जब वे मुख्यमंत्री पद से हटे तो बुद्धदेब भट्टाचार्य ने कमान संभाली और 2011 के मई में विधानसभा चुनाव तक पद पर बने हुए हैं।इस बीच कांग्रेस के अनुभवी नेता प्रणब मुखर्जी का कांग्रेस में दबदबा क़ायम रहा लेकिन वे पश्चिम बंगाल में ऐसी ज़मीन तैयार नहीं कर पाए जहाँ खड़े होकर वे वाममोर्चे को चुनौती देते. प्रियरंजन दासमुंशी जैसे लोकप्रिय नेता भी हुए लेकिन उनका क़द कभी इतना बड़ा नहीं हो सका कि वे वामपंथियों के लिए कांग्रेस को चुनौती के रुप में खड़ा करते.अलबत्ता युवक कांग्रेस के ज़रिए राजनीति में आईं तेज़ तर्रार नेता ममता बैनर्जी ने अपनी ज़मीन ज़रुर तैयार की और उसका पर्याप्त विस्तार भी किया.पहले उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाई और फिर धीरे-धीरे अपनी पार्टी को कांग्रेस से बड़ा कर लिया।

अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में है और कांग्रेस उसकी छोटी सहयोगी पार्टी के रूप में.आज 2024 में जब आकलन लगाए जा रहे हैं कि वाममोर्चे का क़िला ध्वस्त होन की कगार पर है तब इस बात पर कोई बहस नहीं कर रहा है कि कौन मुख्यमंत्री होगा क्योंकि ममता बैनर्जी ने अपना क़द इतना बड़ा कर लिया है कि उनके अलावा किसी विकल्प पर विचार ही नहीं हो रहा है।