देश में चल रहे लोकसभा चुनावों में इस बार हर बार पिछले सालों में हुए चुनावों की तुलना में मतदान को लेकर बड़ा परिवर्तन देखने को मिल रहा है। मतदाता इस बार इन चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने से कतरा रहे हैं। देखा जाए तो इसके कई पहलू हो सकते हैं।
लंबी अवधि तक चलने वाली चुनाव प्रक्रिया मतदाताओं में उदासीनता पैदा करती है। और इस साल में होने वाले लोकसभा चुनावों में भी यही देखने को मिल रहा है। पहले के चुनावों पर नजर डालें तो, 1957 के चुनाव केवल 20 दिन में संपन्न हो गए थे। इसके विपरीत, वर्तमान चुनाव प्रक्रिया सबसे लंबी समयावधि ले रही है। लंबे समय तक प्रचार और मीडिया के विभिन्न मंचों पर लगातार प्रचार से मतदाता ऊब जाते हैं।
मतदान प्रक्रिया का इतिहास
भारत अब तक 17 लोकसभा चुनाव देख चुका है। चुनाव आयोग के लिए ये आयोजन हमेशा आसान नहीं रहे हैं। पहले चुनावों में लगभग सत्रह करोड़ मतदाता थे, जिनमें से पचासी प्रतिशत निरक्षर थे। तब साठ प्रतिशत मतदान हुआ था। वर्तमान में, 97 करोड़ मतदाताओं में लगभग 80 प्रतिशत साक्षर हैं, लेकिन मतदान का औसत प्रतिशत 70 तक भी नहीं पहुंच पाया है।
लोकतांत्रिक जिम्मेदारी की कमी
दुनिया के सबसे बड़े चुनाव कराने वाले देश में अभी भी कई नागरिक अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लेते। पिछले 72 सालों में, केवल 8 से 30 प्रतिशत वोट पाने वाले राजनेता संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व करते आए हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि बहुमत पाने वाले राजनेता को अधिकार के साथ सरकार चलाने का दायित्व मिले।
मतदान बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम
मतदान बढ़ाने के लिए मतदाताओं की मुश्किलों को समझना और उन्हें ठीक करना भी आवश्यक है। मतदान की तारीखें तय करते वक्त वोटरों की कठिनाइयों को ध्यान में रखना चाहिए। हालांकि, संसद और विधानसभा के कार्यकाल की बाध्यता भी इसमें आड़े आती है, लेकिन पक्ष और प्रतिपक्ष संसद के जरिये इसका व्यावहारिक समाधान खोज सकते हैं।
मौसम और चुनाव
अप्रैल-मई के महीने भारत में अलग-अलग मौसम लेकर आते हैं, जो मतदान को प्रभावित करते हैं। अक्तूबर-नवंबर के महीने बेहतर विकल्प हो सकते हैं।
संचार और तकनीकी विकास
आधुनिक संचार और तकनीकी विकास के बावजूद चुनाव के दिनों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहले चुनाव में चार महीने लगे थे, लेकिन बाद के चुनावों में यह समय घटता गया। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में समय बढ़ने से मतदाता ऊब जाते हैं और आचार संहिता भी कई मुश्किलें पैदा करती है।
शहरी मतदाताओं और प्रवासी श्रमिकों की मुश्किलें
शहरी मतदाताओं और शिक्षित बेरोजगारों की कम मतदान दर चिंता का विषय है। प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजी-रोटी छोड़कर वोट डालने के लिए गांव जाना मुश्किल होता है। जागरूक और बौद्धिक तबके की मतदान में घटती दिलचस्पी गहरी चिंता का विषय है।
पारंपरिक प्रचार के तरीके
राजनेताओं को समझना होगा कि 2024 का भारत परंपरागत प्रचार के तरीके स्वीकार नहीं करना चाहता। चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए इन बाधाओं को दूर करना आवश्यक है।
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