राजा हरिश्चंद्र से लौंडा नाच तक
भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र (1913) का इतिहास अब तक सिनेमा के प्रारंभिक दिनों को चिह्नित करता है, लेकिन उस फिल्म का एक दिलचस्प पहलू यह था कि नायिका का किरदार किसी महिला ने नहीं, बल्कि एक पुरुष ने निभाया था। यह दर्शाता है कि उस समय समाज में महिलाओं को सार्वजनिक मंचों पर अभिनय करने की इजाजत नहीं थी और पुरुषों को उनके स्थान पर यह भूमिका निभानी पड़ी थी।
अगर हम बात करें लौंडा नाच की ,तो यहां भी यही असमानता दिखाई देती है। लौंडा नाच में पुरुष महिला के रोल में मंच पर परफॉर्म करते हैं। जैसे राजा हरिश्चंद्र में पुरुष नायक के साथ नायिका का रोल भी पुरुष ने निभाया था, वैसे ही लौंडा नाच में पुरुष कलाकार महिला का किरदार निभाते हैं। यह कला एक लंबे समय से समाज के निचले वर्गों में रही है और आज भी, इन्हें सम्मान की बजाय मजाक और अपमान का सामना करना पड़ता है।
जैसे राजा हरिश्चंद्र में एक पुरुष का नायिका के रूप में प्रदर्शन एक समाजिक प्रतिबंध और रिवाज को दर्शाता था, वैसे ही लौंडा नाच में भी पुरुषों का महिला का रोल निभाना समाज के पिछड़े विचारों और लिंगभेद को प्रकट करता है।
कपिल शर्मा शो से बॉलीवुड तक: जब कला को मजाक और उपेक्षा मिलती है
आज भी, हम जब देखते हैं कि कपिल शर्मा शो जैसे बड़े मंचों पर पुरुष कलाकार महिलाओं का किरदार निभाते हैं, तो यह सिर्फ कॉमेडी की एक विधा बनकर रह जाता है। समाज में लौंडा नाच के कलाकारों का मजाक उड़ाया जाता है, जबकि उन्हें इस कला के लिए गर्व होना चाहिए था। यही हालत बॉलीवुड में भी है, जहां महिला के किरदारों को अक्सर पुरुषों के मुकाबले गौण बना दिया जाता है।
रामचंद्र मंझी का संघर्ष: लौंडा नाच में सम्मान की खोज
लौंडा नाच के एक कलाकार, रामचंद्र मंझी की भावनात्मक यात्रा इस संघर्ष को बखूबी दिखाती है। 92 साल के रामचंद्र इस कला रूप के एक दिग्गज हैं और उन्होंने अपने जीवन के आठ दशकों में लाखों बार मंच पर महिला के रूप में अभिनय किया है। वे हर रात मंच पर महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, और उन्हें “रखैल” यानी उस महिला का किरदार निभाने का सौभाग्य प्राप्त है, जो पुरुषों को आकर्षित करती है। लेकिन उनके योगदान के बावजूद, उन्हें और उनके जैसे कलाकारों को मुख्यधारा के समाज से कभी भी सम्मान नहीं मिला। मंच पर महिला का रूप धारण करना, जिसे अक्सर अशिष्ट या असंस्कृत माना जाता है, परंपरागत मानदंडों के खिलाफ जाता है। फिर भी, रामचंद्र और उनके साथी कलाकारों के लिए लौंडा नाच सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं है—यह उनका अस्तित्व है, उनकी आजीविका है, और एक ऐसा तरीका है जिससे वे अपने दर्शकों से जुड़ते हैं, जो किसी न किसी रूप में उन्हें सम्मान और सराहना देते हैं।
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