Hindi Journalism Day: दुनिया में कभी भी कोई घटना घटी नहीं की लोग उसके बारे में खबरे बनाना और शेयर करना शुरू कर देते है बिना इसकी पड़ताल किए कि वो खबर ओथेन्टिक है या नहीं। ऐसे ही कोई भी नेता न्यूज चैनल का माइक दिखा नहीं कि उसे इंटरव्यू देने लगते हैं। बिना ये जाने कि वो पत्रकार कौन से चैनल से है उसे कितना अनुभव है। आजकल हर कोई पत्रकार बन गया है पर ऐसे लोगों द्वारा बनाई गई खबर व्यूज और लाइक्स जरूर ला सकती है मगर आथेन्टिक निष्पक्ष पत्रकारिता को समझने की सूझबूझ पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
सोशल मीडिया आने के बाद आज हर कोई पत्रकार बन गया है। फेसबुक, इंस्ट्राग्राम, ट्विटर, लिंकडइन इन सभी प्लोटफॉर्म में कोई भी खबरें हो तुरंत वायरल हो जाती है। ऐसे दौर में आज पत्रकारिता एक मौक टेल बन गई है। मौक टेल इसलिए क्योंकि इसमें हिंदी, इंगलिश, ऊर्दु इस सब का मेल देखा जाता है। इसकी वजह से आज कहीं न कहीं हिंदी पत्रकारिता अपना असली रूप खोता जा रहा है। शायद मोर्डन युग के बच्चों को पता भी नहीं होगा कि हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत आखिर कैसे दौर में हुई थी।
आज पूरा देश हिंदी पत्रकारिता दिवस मना रहा है। इस दिन को मनाने के लिए आज हम बताएंगे कि आखिर अंग्रेजों की गुलामी के दौरान हिंदी पत्रकारिता की ज्वाला भारत देश में कैसे जलाई गई थी।
यह बात लगभग दो शताब्दी पहले की है जब ब्रिटिश कालीन भारत में दूर दूर तक मात्र अंग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू और बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी “कलकत्ता” में “कानपुर” के रहने वाले वकील पण्डित जुगल किशोर शुक्ल ने अंग्रेजों की नाक के नीचे हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की आधारशिला रखी, जिसपर आज हिन्दी पत्रकारों की निंव टिकि हुए है। उस आधारशिला का नाम था “उदन्त मार्तण्ड”, जिसने अंग्रेजों की नाक में इस कदर खुजली कर दी की उसका प्रकाशन डेढ़ साल से अधिक न हो सका। हिंदी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला समाचार पत्र 30 मई, 1826 में निकाला गया था। इसलिए इस दिन को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका प्रकाशन और संपादन दोनों ही जुगल किशोर शुक्ल के द्वारा ही किया जाता था। इस तरह हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले पंडित जुगल किशोर शुक्ल का हिंदी पत्रकारिता जगत में एक खास स्थान है।
उस समय औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में जुगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया था। परतंत्र भारत में हिंदुस्तानियों के हक की बात करना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका था। इसी के लिए उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार इलाके में अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया।
उदंत मार्तण्ड एक ऐसा अखबार था जो ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी नीतियों के खिलाफ खुलकर लिखता था। ये 8 पेज का साप्ताहिक अखबार हर मंगलवार को निकलता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ खबरें प्रकाशित करने के चलते सरकार ने अखबार के प्रकाशन में कानून अडंगे लगाना शुरू कर दिया।
परतंत्र भारत की राजधानी कलकत्ता में अंग्रजी शासकों की भाषा अंग्रेजी के बाद बांग्ला और उर्दू का प्रभाव था। इसलिए उस समय अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी में कई समाचार पत्र निकलते थे। तब हिंदी भाषा का एक भी समाचार पत्र मौजूद नहीं था। 1818-19 में कलकत्ता स्कूल बुक के बांग्ला समाचार पत्र ‘समाचार दर्पण’ में कुछ हिस्से हिंदी में भी होते थे।
हालांकि ‘उदन्त मार्तण्ड’ एक साहसिक प्रयोग था। इस साप्ताहिक समाचार पत्र के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी। हिंदी भाषी पाठकों की कमी की वजह से उसे ज्यादा पाठक नहीं मिल सके। दूसरी बात की हिंदी भाषी राज्यों से दूर होने के कारण उन्हें समाचार पत्र डाक द्वारा भेजना पड़ता था। उस दौरान डाक दरें बहुत ज्यादा होने की वजह से इसे हिंदी भाषी राज्यों में भेजना भी आर्थिक रूप से महंगा सौदा पड़ने लगा था।
पैसों की तंगी की वजह से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बहुत दिनों तक नहीं हो सका और आखिरकार 4 दिसम्बर, 1827 को इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया। ।
स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता भारतीयों की सशक्त आवाज बनी थी। आजादी के बाद हिंदी पत्रकारिता ने भारत की प्रगति और भारतीयों का कल्याण सुनिश्चित किया। निडरता-निष्पक्षता से पत्रकारिता कर्म निभाने वाले पत्रकार साथियों की इसमें अहम भूमिका रही है।
आज का दौर बिलकुल बदल चुका है। पत्रकारिता में बहुत ज्यादा आर्थिक निवेश हुआ है और इसे उद्योग का दर्जा हासिल हो चुका है। हिंदी के पाठकों की संख्या बढ़ी है और इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। लेकिन कहीं न कहीं हिंदी पत्रकारिता आज खतरे में नजर आ रही है।
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