जैसे नदियां अपनी धारा बदलती रहती हैं। बिहार की राजनीति भी ठीक उन नदियों की तरह है। समाज की जातीय धारा। बनते-बिगड़ते समीकरण। कहीं जमीन खिसकती हुई तो कहीं फिर से बाहर निकलती हुई। यह समय लोकसभा चुनाव का है। जहां राजनीतिक धाराओं का संगम भी है और अलगाव भी। उत्तराधिकारी के रूप में नए नाविक भी तैयार हो रहे हैं।
बिहार ने आज़ादी के बाद का देश का अकेला जनआंदोलन खड़ा किया लेकिन यही बिहार ग़रीबी और कुपोषण से लेकर राजनीति के अपराधीकरण तक के लिए बदनाम भी सबसे अधिक हुआ।हाल के दिनों में आंकड़ो ने बिहार के बदलने के संकेत दिए हैं लेकिन ज़मीनी स्थिति कितनी बदली है यह अभी भी अस्पष्ट है।
अन्य उत्तर भारतीय राज्यों की तरह ही बिहार भी लंबे समय तक कांग्रेस के प्रभाव में रहा है।वर्ष 1946 में श्रीकृष्ण सिन्हा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला तो वे वर्ष 1961 तक लगातार इस पद पर बने रहे।चार छोटे ग़ैर कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल को छोड़ दें तो 1946 से वर्ष 1990 तक राज्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही सत्तारुढ़ रही। यहां से महामाया प्रसाद सिन्हा, भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर,रामसुंदर दास गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे।
बिहार को राजनीतिक रुप से काफ़ी जागरुक माना जाता है लेकिन यह राजनीतिक रुप से सबसे अस्थिर राज्यों में से भी रहा है।शायद यही वजह है कि वर्ष 1961 में श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद 1990 तक क़रीब तीस सालों में 23 बार मुख्यमंत्री बदले और पाँच बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।संगठन के स्तर पर कांग्रेस पार्टी राज्य स्तर पर कमज़ोर होती रही और केंद्रीय नेतृत्व हावी होता चला गया, लेकिन साफ़ दिखता है कि बिहार की राजनीतिक लगाम उसके हाथों से भी फिसलती रही,जिन तीस सालों में 23 मुख्यमंत्री बदले उनमें से 17 कांग्रेस के थे।
शैक्षिक स्तर में गिरावट, महंगाई, बेकारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के मुद्दों पर शुरु हुआ यह आंदोलन सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में एक देशव्यापी आंदोलन बन गया।इस आंदोलन का असर इतना गहरा था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इससे ख़तरा महसूस होने लगा और कहा जाता है कि 26 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की तो उसके पीछे संपूर्ण क्रांति आंदोलन एक बड़ा कारण था।
जेपी के आंदोलन ने बिहार में एक नए नेतृत्व को जन्म दिया। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार उसी की उपज थे।वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की वजह से बिहार में जनता दल को जीत मिली और लालू प्रसाद यादव 10 मार्च 1990 को मुख्यमंत्री बने, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से 25 जुलाई 1997 को उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा।इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया जो छह मार्च 2005 तक लगातार मुख्यमंत्री बनी रहीं।
इस बीच राज्य में कांग्रेस एक तरह से हाशिए पर ही चली गई और भाजपा कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं आ सकी कि वह अपने बलबूते पर सरकार का गठन कर सके।लालू-राबड़ी के तीन कार्यकालों के बाद बिहार में एक परिवर्तन आया और राष्ट्रीय जनता दल को हार का सामना करना पड़ा।त्रिशंकु विधानसभा उभरी, लालू प्रसाद के पुराने गुरु जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ उनके पुराने साथी नीतीश कुमार ने जनता दल (यूनाइटेड) बनाकर सत्ता परिवर्तन किया। कभी इधर तो कभी उधर,दल बदलू नीतीश कुमार की कहानी पूरा देश जानता है वहीं लालू प्रसाद यादव का बेटा तेजस्वी इस बार लोकसभा चुनाव जीतने के लिए बिहार में सभाओं पर सभाए करता रहा तेजस्वी यादव की सभा में जो भीड़ उमर रही थी वह पिता के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपी को भी पीछे छोड़ रही थी। इस बार बिहार मैं ऊंट किस करवट बैठेगा उसे पर देश के साथ-साथ राजनीतिक विशेषज्ञों की भी नजर है।
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