अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को लेकर एक नया विवाद सामने आया है, जिसमें दावा किया जा रहा है कि यह स्थान पहले संकट मोचन महादेव का एक हिंदू मंदिर था। यह दावा हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने किया है, जो इसके समर्थन में दो साल की रिसर्च और कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों का हवाला दे रहे हैं। इस दावे ने न केवल कोर्ट के अंदर, बल्कि समाज में भी बहस छेड़ दी है, जिससे इतिहास, धर्म और पहचान के बीच एक नई बहस का सूत्रपात हो गया है।
दावे की शुरुआत: क्या दरगाह के नीचे था मंदिर?
विष्णु गुप्ता ने अजमेर सिविल कोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने कहा कि दरगाह के स्थान पर पहले एक हिंदू मंदिर था। याचिकाकर्ता ने इस दावे के समर्थन में रिटायर्ड जज हरबिलास शारदा की किताब Ajmer: Historical and Descriptive का हवाला दिया, जिसमें 1911 में कहा गया था कि इस स्थान पर पहले एक ब्राह्मण दंपती रहते थे जो महादेव की पूजा करते थे। इसके अलावा, गुप्ता ने दरगाह की संरचना को हिंदू मंदिरों के समान बताया, खासकर दरवाजों की नक्काशी और ऊपरी निर्माण को लेकर, जो उनके अनुसार एक हिंदू मंदिर की तरह दिखाई देते हैं।
गुप्ता के अनुसार, दरगाह में मौजूद पानी और झरने जैसी विशेषताएं भी शिव मंदिरों से मेल खाती हैं, जो उनके दावे को और मजबूत बनाती हैं। उनका कहना है कि यह संभव है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने एक हिंदू मंदिर को तोड़कर यहाँ दरगाह का निर्माण किया हो।
कानूनी जंग की ओर
अजमेर सिविल कोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया है और 20 दिसंबर 2024 को सुनवाई की तारीख तय की है। इस मामले में दरगाह कमेटी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI), और अल्पसंख्यक मंत्रालय को नोटिस जारी किया गया है और उनसे अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है।
विरोध: देश की एकता के लिए खतरा
वहीं, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के वंशज और अजमेर दरगाह के प्रमुख उत्तराधिकारी नसरुद्दीन चिश्ती ने इस दावे का कड़ा विरोध किया है। उन्होंने कहा कि ऐसे दावे देश की एकता और धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। उनके अनुसार, दरगाह एक सदियों पुरानी सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है, और यह दावा पूरी तरह से गलत और निराधार है। चिश्ती ने यह भी कहा कि 1950 में भारत सरकार की एक कमेटी ने पहले ही दरगाह की संरचना का निरीक्षण कर यह पुष्टि की थी कि इसमें कोई हिंदू मंदिर नहीं था।
इसके अलावा, अन्य नेताओं ने भी इस मुद्दे को सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए खतरा बताया है। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह कानूनी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाने जैसा है, और इस तरह के विवाद केवल देश में असमंजस और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं।
इतिहास या मिथक?
अजमेर दरगाह को लेकर यह नया विवाद कोई पहला नहीं है। इससे पहले भी कई धार्मिक स्थलों के बारे में ऐसे दावे किए जा चुके हैं, जो ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाते। इस बार भी सवाल यह उठता है कि क्या गुप्ता का दावा ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है, या यह एक अन्य प्रयास है धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने का?
संतुलन बनाए रखना जरूरी
इस प्रकार के दावों को बेहद सावधानी से लिया जाना चाहिए। इतिहास हमेशा व्याख्याओं का विषय रहा है, और ऐसे विवादों से हम केवल समाज में और अधिक तनाव और विभाजन पैदा करते हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि अजमेर दरगाह जैसे धार्मिक स्थल न केवल एक धर्म, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों के साझा इतिहास के प्रतीक होते हैं।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास की बहसें चाहे जैसी भी हों, हमारा प्राथमिक उद्देश्य देश की एकता और धार्मिक सद्भाव को बनाए रखना होना चाहिए। धार्मिक स्थलों को लेकर ऐसे विवाद न केवल समुदायों को बांटते हैं, बल्कि हमारी सामाजिक ताने-बाने को भी कमजोर करते हैं। इसलिए हमें इस तरह की बहसों से बचने की कोशिश करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम सभी धर्मों और समुदायों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता बनाए रखें।
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