विकास के नाम पर निकोबार द्वीप समूह के करीब 20 लाख पेड़ काटे जाएंगे।
एक ओर दुनिया पर्यावरण बचाओ कहते हुए चीखती चिल्लाती है, वहीं दूसरी ओर विकास के नाम पर हजारों साल पुराने वन काटे जा रहे हैं। एक पौधे को पूर्ण वृक्ष बनने के लिए कम से कम कम से कम 20 से 25 साल लगते हैं। जिस तरह से वृक्षारोपण के नाम पर विविध कार्यक्रम होते हैं, उनमें कौन से पेड़ बोए जाते हैं, इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।धरती को पुनर्जीवित करते रहते कौन से पेड़ होने चाहिए, इस पर भी ज्ञान का अभाव है।कोनोकोरपस जैसे पेड़ लगाए जाते है।ऐसे में सैकड़ो साल पुराने वनों को काटना कहां तक उचित है?
अन्य देशों के मुकाबले यदि भारत की बात की जाए तो विकास के नाम पर आनन फानन में पेड़ काटे जाते हैं। तालाबों को कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए भर दिया जाता है। अभी हाल ही में मिली खबर के अनुसार नीति पंच की विनाशकारी नीति के चलते विकास के नाम पर प्राकृतिक संपदा का खजाना कहे जाते निकोबार द्वीप समूह में तकरीबन 20 लाख पेड़ काटे जाएंगे। इस प्रोजेक्ट के कारण दुर्लभ रुद्राक्ष के वृक्ष और किटको, फूलों की विविध प्रजातियों के साथ कई पशु पक्षियों की प्रजातियां भी नष्ट हो जाएगी। अंदामान निकोबार द्वीपसमूह आज तक काफी हद तक तथाकथित विकास के नाम से बच रहा था, लेकिन अब तो “द ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट” अंतर्गत ग्रेट निकोबार के दक्षिणी क्षेत्र में 72,000 करोड़ का प्रस्तावित मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट बनाया जाएगा। नीति आयोग द्वारा यह प्रोजेक्ट अंडमान निकोबार द्वीप समूह संकलित विकास निगम द्वारा विकसित किया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट में संरक्षण, लॉजिस्टिक्स, वाणिज्य, उद्योगों, इको टूरिज्म, कोस्टल टूरिज्म, कोस्टल रेगुलेशन जोन जैसे मुद्दे शामिल है। एक ओर इको टूरिज्म, कोस्टल टूरिज्म और कोस्टल रेगुलेशन जोन की बात करता नीति आयोग जिस तरह से इस विस्तार में विकास के नाम पर 20 लाख पेड़ों को काटने की योजना बना रहा है, ऐसे में इको टूरिज्म, कोस्टल टूरिज्म, और कोस्टल रेगुलेशन जोन कहां रह गया?
ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल,अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट की भी यहाँ योजना है। 3,00,000 लोग रह सके ऐसे दो शहर बनाने के इस प्रोजेक्ट को लेकर पर्यावरणविदो में भारी रोष है।
इस प्रोजेक्ट से निकोबार द्वीप के प्राकृतिक वन्य जीवन,जलजीवन पर बहुत बड़ा खतरा होगा। वहीं इस प्रोजेक्ट के चलते 244 स्क्वेयर किलोमीटर में फैले इस टापू का 130 स्क्वेयर किलोमीटर जितना हिस्सा प्राकृतिक संपदा से भरपूर है,जो खत्म हो जायेगा। वर्षावनों के खात्मे के कारण निकोबार द्वीपसमूह की खुबसूरती और इन वनों पर निर्भर यहां प्राचीनकाल से शहरी जीवन से अलिप्त रहते “शॉम्पेन” और “निकोबिरीज” आदिवासी समुदायों के जीवन पर बहुत ही दुष्प्रभाव पड़ेगा।वैसे भी शॉम्पेन समुदाय समाप्ति की कगार पर है,इनकी संख्या घटकर केवल 250 रह गई है। यह समुदाय बाहरी दुनिया से बिल्कुल भी संबंध नहीं रखते हैं। आज इन दोनों समुदायों के अस्तित्व पर इस प्रोजेक्ट में सवालिया निशान लगा दिया है। उनका तो जैसे घर ही छीन जाएगा।उनके साथ यहां रहते दुर्लभ पशु, पक्षी, किटकों, विश्व में सबसे प्राचीन जीवित प्राणियों में माने जाते लेदरबैक कछुओ की प्रजाति, निकोबार क्रैक, निकोबार मेगा पोर्ट जैसे पक्षी, सैकड़ो किलोमीटर विस्तार में फैले मेंग्रोव्स, का भी नाश होगा।
चूंकि,निकोबार द्वीप समूह रिंग ऑफ़ फायर जोन में है, अतः यहां पर भूकंप का भी बहुत बड़ा खतरा है। विश्व में होते कुल भूकंपों में से सबसे अधिक 90% भूकंप रिंग ऑफ फायर जोन में होते हैं। ऐसे में यहां पर विशाल निर्माण इस द्वीप समूह के लिए बहुत बड़ा खतरा बन सकते हैं।हो सकता है ये टापू समंदर में डूब जाएं।
ग्रेट निकोबार टापू के उत्तर में कैंपबेल नेशनल पार्क और दक्षिण में गालाथीया नेशनल पार्क है। सन 1889 में यहां पर ग्रेट निकोबार बायोस्फीयर रिजर्व बनाया गया था। 850 स्क्वेयर किलोमीटर विस्तार को यूनेस्को ने सन 2013 में मैन एंड बायोस्फीयर प्रोग्राम के तहत सुरक्षित घोषित किया है ,क्योंकि यहां पर दुर्लभ उष्णकटिबंधीय वर्षावन और वन्य सृष्टि जीवंत है। यहां पर बेहिसाब विविधता से भरपूर वनस्पति,और दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां है।
इस तथाकथित विकास प्रोजेक्ट को यदि वक्त रहते रोका नहीं गया तो निकोबार द्वीप कब नष्ट हो जायेगा यह पता भी नही चलेगा।जो लोग अब तक अंदामन निकोबार जा चुके है उनकी यादों में और तस्वीरों में ही यह द्वीप समूह रह जायेगा।
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