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Ganesh Chaturthi

कैसे शुरू हुई थी गणेशोत्‍सव मनाने की परंपरा, पेशवाओं से जुड़ा है इतिहास

भगवान गणेश की पूजा अति प्राचीन काल से की जाती रही है। पुराणों में भी गणेशजी का उल्लेख “विघ्नहर्ता” और “सिद्धिविनायक” के रूप में किया गया है। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत भगवान गणेश की पूजा से की जाती है। इसके पीछे मान्यता है कि गणेशजी सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करते हैं और कार्य की सिद्धि में सहायक होते हैं। गणेश चतुर्थी का उत्सव भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसका वर्णन विभिन्न पुराणों में मिलता है। पहले गणेश चतुर्थी का उत्सव मुख्यतः घरों में व्यक्तिगत रूप से मनाया जाता था, और परिवार के लोग मिलकर भगवान गणेश की पूजा करते थे।

पेशवाओं के दौर में गणेशोत्सव:

पेशवाओं का दौर 18वीं सदी में महाराष्ट्र और आसपास के क्षेत्रों में था। उस समय पेशवाओं के शासनकाल में पुणे गणेशोत्सव का मुख्य केंद्र बन गया। पेशवा बालाजी बाजीराव (नाना साहेब) गणेश भक्त थे, और उनके शासनकाल में गणेशोत्सव को बहुत अधिक महत्व दिया गया। पेशवाओं के राज में गणेश पूजा को शाही और धार्मिक रूप से विशेष स्थान मिला। उस समय पुणे के श्रध्दालु गणेशजी की पूजा बड़े ही श्रद्धा और भव्यता से करने लगे, विशेष रूप से शाही परिवारों के बीच गणेशोत्सव को महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।

पेशवाओं के घरों में गणेश चतुर्थी के दिन विशेष आयोजन किए जाते थे, और धीरे-धीरे गणेशोत्सव पूरे समाज में फैल गया। पुणे में कास्बा गणपति और अन्य प्रमुख गणेश मंदिरों में भी गणेश चतुर्थी के दिन विशेष पूजा और अनुष्ठान किए जाते थे। हालांकि, उस समय गणेशोत्सव का आयोजन सार्वजनिक रूप से बड़े पैमाने पर नहीं किया जाता था, बल्कि इसे परिवार और समाज के सीमित वर्गों के भीतर ही मनाया जाता था।

लोकमान्य तिलक और आधुनिक गणेशोत्सव की शुरुआत:

गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप में मनाने की परंपरा का श्रेय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को जाता है। 1893 में, तिलक ने गणेशोत्सव को एक सार्वजनिक और सामूहिक उत्सव के रूप में प्रारंभ किया। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को एकजुट करना और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाज में राष्ट्रीय चेतना का संचार करना था।

तिलक ने देखा कि गणेशजी हिंदू समाज के हर वर्ग में पूजनीय हैं और गणेशोत्सव एक ऐसा पर्व हो सकता है, जिसके माध्यम से लोगों को एकत्र किया जा सकता है। उन्होंने गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप से मनाने की शुरुआत की और इसे एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने इस पर्व को एक सांस्कृतिक और धार्मिक त्यौहार से आगे बढ़ाकर सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता का माध्यम बनाया। तिलक के प्रयासों से गणेशोत्सव का आयोजन सार्वजनिक स्थानों पर किया जाने लगा, और इसमें समाज के हर वर्ग के लोग सम्मिलित होने लगे।

तिलक ने इस पर्व के दौरान स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े विषयों पर व्याख्यान, संगीत, नाटक और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया। इसके माध्यम से भारतीय जनता के बीच राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावना को प्रबल किया गया। उस समय जब ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को संगठित करने की आवश्यकता थी, गणेशोत्सव ने इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस त्यौहार ने भारतीयों के बीच सामाजिक एकता, सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय भावना को मजबूती प्रदान की।

गणेशोत्सव का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:

गणेशोत्सव अब केवल धार्मिक उत्सव नहीं रहा, बल्कि यह सांस्कृतिक और सामाजिक उत्सव बन चुका है। महाराष्ट्र के हर गांव, शहर, और गली में गणेश प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं और उनका दस दिनों तक पूजन किया जाता है। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। गणेशोत्सव न केवल महाराष्ट्र में, बल्कि भारत के अन्य राज्यों और यहां तक कि विदेशों में भी भव्य रूप से मनाया जाने लगा है।

आज भी इस उत्सव के दौरान न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी चर्चा होती है। गणेशोत्सव का यह स्वरूप लोकमान्य तिलक की सोच और उनके प्रयासों का परिणाम है।

निष्कर्ष:

गणेशोत्सव की परंपरा का प्रारंभ प्राचीन काल से हुआ, लेकिन पेशवाओं के दौर में इसे महत्वपूर्ण स्थान मिला और लोकमान्य तिलक ने इसे सार्वजनिक और सामाजिक आंदोलन का रूप दिया। आज यह पर्व भारतीय संस्कृति, सामाजिक एकता और धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक बन चुका है। गणेशोत्सव न केवल भगवान गणेश की पूजा का पर्व है, बल्कि यह त्यौहार समाज को एकजुट करने और सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने का माध्यम भी है।