यदि खेल के नजरिए से देखा जाए तो आज भारत की पहचान क्रिकेट के रूप में होती है। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि एक वक्त ऐसा भी था जब भारत को देश-विदेश में क्रिकेट नहीं बल्कि फुटबॉल के नाम पर पहचाना जाता था। आज हम बात करेंगे उस महान शख्सियत की, जिन्होंने 13 साल तक भारतीय फुटबॉल का प्रबंधन किया और आने वाली फुटबॉल टीम की नींव रखी। यह वह समय था जब भारत में फुटबॉल की धूम मची हुई थी, और इंडियन फुटबॉल फेडरेशन को एशिया का ब्राजीलिया कहा जाता था। आज हम आपको सैयद अब्दुल रहीम की कहानी बताने जा रहे हैं, जिन्होंने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होने के बावजूद भारत को फुटबॉल में गोल्ड मेडल जिताया था।
सैयद अब्दुल रहीम का जन्म 17 अगस्त 1909 को हुआ था। हैदराबाद में उन्हें मॉडर्न इंडियन फुटबॉल का आर्किटेक्ट भी कहा जाता है। वह एक टीचर थे, जो 1950 में भारत की नेशनल फुटबॉल टीम के कोच बने। उन्होंने 1950 से 1963 तक भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का कोचिंग कार्यभार संभाला उस समय भारतीय खिलाड़ी नंगे पैर फुटबॉल खेलते थे। रहीम ने ही इंडियन फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों को जूते पहनना सिखाया और उन्हें दुनिया की मजबूत टीमों के सामने खड़ा किया।
रहीम की दो प्रमुख उपलब्धियों की बात करें तो एशियाई खेलों में उन्होंने हमारे देश को गोल्ड मेडल जितवाया। 1956 के समर ओलंपिक्स में, जो मेलबर्न में हुए थे, भारतीय टीम को सेमीफाइनल तक पहुंचाया। उसी ओलंपिक्स में भारत ने मेजबान टीम ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराकर सेमीफाइनल में जगह बनाई थी, और ऐसा करने वाला भारत पहला एशियाई देश बना।
फुटबॉल में 4-2-4 फॉर्मेशन होता है। इस 4-2-4 फॉर्मेशन को ब्राजील ने 1958 में पॉपुलर किया, पर इस फॉर्मेशन की शुरुआत मिस्टर रहीम ने बहुत पहले ही भारतीय फुटबॉल में कर दी थी। यह बात और स्पष्ट हुई 1964 में जब इंडियन नेशनल कोच अल्बर्टो फर्नांडो एक वर्कशॉप के लिए ब्राजील गए। उन्होंने कहा कि जो हमने 1956 में रहीम से सीखा, वह 1964 में ब्राजील में सिखाया जा रहा था।
सैयद अब्दुल रहीम की कहानी तब और भी रोचक हो जाती है जब यह पता चलता है कि उन्होंने कैंसर से जूझते हुए भी भारतीय टीम का नेतृत्व किया और 1962 में हमें गोल्ड मेडल जितवाया। इस टूर्नामेंट में दो खिलाड़ियों को चोट लगी थी और गोलकीपर बीमार था, इसके बावजूद हमने गोल्ड मेडल जीता। यह एक ऐतिहासिक मैच था जहां 1 लाख लोगों की भीड़ थी और हमने दक्षिण कोरिया को हराकर गोल्ड मेडल जीता था। कहा जाता है कि फाइनल से पहले उन्होंने अपने सभी खिलाड़ियों से कहा था, “कल आप लोगों से मुझे एक तोहफा चाहिए, कल आप लोग सोना जीत लो”। 11 जून 1963 को कैंसर से लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।
सैयद अब्दुल रहीम ने अपने पूरे टेन्योर में भारतीय फुटबॉल को कई अच्छे खिलाड़ी दिए, जिन्होंने अपने समय में भारतीय फुटबॉल को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। आज जो भारतीय फुटबॉल हम देखते हैं, उसमें भी उनका एक बड़ा योगदान है।
हाल ही में आपने एक फिल्म देखी होगी, ‘मैदान’, जो कि उनकी जीवन पर आधारित है। यह थी कहानी सैयद अब्दुल रहीम की, जिन्हें भारतीय फुटबॉल का मसीहा भी कहा जाता है।
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