सामान्यतः फाल्गुन मास की कृष्ण प्रतिपदा को धूलेट का उत्सव मनाया जाता है, जिसे होली उत्सव भी कहा जाता है। जब होली उत्सव की चर्चा होती है, तब व्रज भाषा का एक प्रसिद्ध कीर्तन स्मरण आता है –
“नंद के द्वार मची होरी… नंद के द्वार; पांच बरस के कंवर कन्हैया, सात बरस राधा गोरी… नंद के द्वार; इत्त छांटे कंवर कन्हैया, इत्त छांटे राधा गोरी… नंद के द्वार।”
होली का यह उत्सव व्रज में अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। व्रज साहित्य में इसका वर्णन मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण और व्रजवासी इस रंगोत्सव में मग्न होकर रंगों से खेलते थे। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आगे चलकर महाप्रभु वल्लभाचार्य जी तथा वैष्णव संतों ने भी इस परंपरा को जारी रखा।
पुष्टि परंपरा में धूलेट का महत्व
पुष्टि परंपरा के अनुसार यह उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है। फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा का आध्यात्मिक महत्व यह है कि जब भगवान ने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की, तब इस प्रसन्नता में जनता ने रंगोत्सव मनाया। विद्वानों के मतानुसार यह दर्शाता है कि जिस पर भगवान की कृपा होती है, उसके लिए अग्नि भी शीतल हो जाती है।
रंगोत्सव हमें यह शिक्षा देता है कि जीवन में किसी भी प्रकार का दुख या विपत्ति आए, तो घबराने की आवश्यकता नहीं है। हमें हमेशा सकारात्मक विचारों को अपने मन में रखना चाहिए। रंगोत्सव का वास्तविक अर्थ ही सकारात्मकता से परिपूर्ण जीवन जीना है।
प्रेम और भक्ति का प्रतीक रंगोत्सव
प्राचीन काल में रंगोत्सव गुलाल के माध्यम से खेला जाता था, जो प्रेम का प्रतीक माना जाता है। आज के समय में हमें दूसरों को क्या दे सकते हैं? इसका उत्तर प्रेम ही है। भक्ति के नौ रूप होते हैं, लेकिन प्रेमलक्षणा भक्ति को सर्वोत्तम माना गया है। नृसिंह मेहता भी कहते हैं – “नवधा में नव होय, निवेड़ो तो दसधा में देखाय।” रंग का अर्थ प्रेम है और प्रेम का अर्थ श्रीकृष्ण। अतः श्रीकृष्ण और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रेमलक्षणा भक्ति को प्राप्त करने और उसका प्रचार करने वाला पर्व ही धूलेट है।
स्वामीनारायण संप्रदाय में धूलेट का महत्व
स्वामीनारायण संप्रदाय में भी धूलेट का एक प्रसंग मिलता है। श्रीजी महाराज के एक भक्त थे, जिनका नाम था जोबन पगी। पहले वे एक डाकू थे, लेकिन श्रीजी महाराज के भक्त बन गए। उन्होंने रंगोत्सव में 25 मन गुलाल चढ़ाकर श्रीजी महाराज को रंग खेलाया और गुलाल रूपी प्रेम भक्ति से उन्हें प्रसन्न किया।
वैष्णव परंपरा में इस रंगोत्सव का विशेष महत्व है। मूल रूप से प्रेमलक्षणा भक्ति ही इसका केंद्रबिंदु है। यही कारण है कि धूलेट का पर्व न केवल रंगों का उत्सव है, बल्कि प्रेम, भक्ति और अध्यात्म का संगम भी है।

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