19वीं सदी के मध्य यानी 1850 के आसपास, दुनिया की आबादी लगभग 120 करोड़ थी। आज से 175 साल पहले, विश्व की कुल जनसंख्या भारत की वर्तमान जनसंख्या से लगभग 20-25 करोड़ कम थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय अखंड भारत की जनसंख्या लगभग 25-30 करोड़ थी। वर्तमान में, वैश्विक आबादी 800 करोड़ को पार कर चुकी है, जिसमें 140 करोड़ से अधिक भारतीय नागरिक शामिल हैं।
आज, दुनिया को जिस मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता है, उसकी तुलना में 175 साल पहले की जरूरतें बहुत कम थीं। फिर भी, फसलों की विविधता के मामले में हमारे पूर्वज हमसे अधिक सौभाग्यशाली थे। उस समय 9,000 कृषि पौधों का अस्तित्व था, जिनमें से 200 प्रकार की फसलें उगाई जाती थीं। यानी, 120 करोड़ लोगों के लिए 200 प्रकार की फसलें उपलब्ध थीं।
आज? 800 करोड़ की आबादी सिर्फ 9 प्रकार की फसलों पर निर्भर है। लोगों को ज्यादा विविधता की आवश्यकता महसूस नहीं होती, जिससे धीरे-धीरे फसलों की विविधता समाप्त होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों में कई फसलें विलुप्त हो चुकी हैं। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो वर्तमान में मौजूद कृषि पौधों की आधी से अधिक किस्में समाप्त हो जाएंगी।
कृषि इतिहास की संक्षिप्त झलक
12,000 वर्ष पूर्व, मनुष्य ने कृषि शुरू की थी। उससे पहले, वह शिकार कर भोजन प्राप्त करता था। उस समय पृथ्वी पर लगभग 10-11 लाख प्रकार की वनस्पतियाँ थीं, जिनमें से 3 लाख विषैली या अखाद्य थीं। शेष 8 लाख से अधिक वनस्पतियों का सेवन किया जा सकता था। प्रारंभिक मानव ने आवश्यकतानुसार 5,000-7,000 प्रकार की वनस्पतियों की खेती शुरू की।
समय के साथ, कृषि पद्धतियाँ विकसित हुईं और फसलों की उत्पादकता बढ़ी। धीरे-धीरे, नई वनस्पतियों पर प्रयोग किए जाने लगे, जिससे खेती योग्य खाद्य पौधों की संख्या 10,000-12,000 तक पहुँच गई। हालांकि, इनमें से सभी कृषि पौधों का बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं होता था, लेकिन उनकी रक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी की जाती रही।
19वीं सदी तक 9,000 कृषि पौधों को संरक्षित रखा गया। उस समय 200 प्रकार की फसलों का उत्पादन किया जाता था। लेकिन औद्योगिक क्रांति और तकनीकी विकास के कारण कृषि पर ध्यान कम हो गया और नए उद्योगों की ओर रुझान बढ़ा। परिणामस्वरूप, 20वीं सदी में नियमित रूप से उगाई जाने वाली 70% मूल फसलें विलुप्त हो गईं।
वर्तमान कृषि संकट
जनसंख्या वृद्धि के कारण पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ सभी के लिए भोजन उपलब्ध कराने में असमर्थ हो गईं। इस कमी को पूरा करने के लिए वैज्ञानिक तरीकों से हाईब्रिड फसलों का विकास किया गया, जिससे उत्पादन तो बढ़ा लेकिन मूल फसलों की विविधता समाप्त हो गई।
20वीं सदी के अंत में जलवायु परिवर्तन ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। तापमान में वृद्धि के कारण कई प्रजातियाँ नष्ट हो गईं। 19वीं सदी में 200 प्रकार की फसलों की खेती होती थी, जो 20वीं सदी में घटकर 100-120 रह गई। 21वीं सदी में अब दुनिया के किसान मुख्यतः केवल 30 प्रकार की फसलों की खेती कर रहे हैं।
चिंताजनक तथ्य यह है कि वैश्विक कृषि उत्पादन का 75% हिस्सा केवल 9 फसलों से आता है। यानी, फसलों की विविधता लगभग समाप्त होने के कगार पर है।
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में हो रहे कृषि उत्पादन में चावल, गन्ना, मक्का, गेहूं, आलू, सोयाबीन, पाम ऑयल, फल और कसावा का संयुक्त योगदान 75% है। शेष 25% में से 15% हिस्सा 30 अन्य फसलों का है, जिनमें मूंगफली, कपास, बाजरा आदि शामिल हैं। बाकी फसलों का योगदान मात्र 5% है।
FAO के अनुसार, दुनिया में अब भी 6,000 फसलों की विविधता बची हुई है, लेकिन उनका उत्पादन बहुत कम है। चूंकि वे व्यावसायिक रूप से लाभदायक नहीं हैं, इसलिए किसान उनका उत्पादन नहीं करना चाहते।
FAO के विशेषज्ञों ने 12 वर्षों तक 128 देशों में कृषि उत्पादन का अध्ययन करने के बाद चेतावनी दी है कि यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो दुनिया में फसलों की विविधता भी जीवों, पेड़ों और वनस्पतियों की तरह घटती जाएगी। 800 करोड़ की आबादी केवल 30 फसलों पर निर्भर हो चुकी है, जिससे बाजार को अन्य फसलों की आवश्यकता नहीं महसूस होती।
भविष्य का परिदृश्य
12,000 वर्ष पहले, पृथ्वी पर 10-11 लाख प्रकार की वनस्पतियाँ थीं, जिनमें से लगभग 8,000-10,000 प्रकार की फसलों की खेती की जाती थी। आज, पेड़ों और वनस्पतियों की संख्या घटकर 3,91,000 रह गई है। वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि 21वीं सदी के अंत तक यह संख्या आधी रह जाएगी।
वर्तमान में, दुनिया में 30,000 खाद्य वनस्पतियाँ हैं, जिनमें से केवल 6,000-7,000 कृषि योग्य हैं। लेकिन इनमें से भी 75% उत्पादन केवल 8 फसलों का होता है। 2050 तक यह संख्या घटकर 15 प्रमुख फसलों तक सीमित हो जाएगी, और 2060 तक वैश्विक कृषि उत्पादन में केवल 5 फसलों का योगदान 70% होगा।
आज, इंसान के पास विभिन्न प्रकार के व्यंजन हैं, लेकिन उनके मूल सामग्री में विविधता की कमी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। चावल, गेहूं, मक्का, आलू और चीनी का चारों ओर प्रभुत्व है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे पास भले ही भोजन की कई वैरायटी हों, लेकिन हमारे पूर्वजों के पास वास्तव में अधिक खाद्य विविधता थी।
उप-प्रजातियाँ भी खतरे में
वर्तमान में, 9 प्रमुख फसलों का 75% हिस्सा उप-प्रजातियों सहित शामिल किया जाता है। उदाहरण के लिए, FAO की रिपोर्ट में केवल गेहूं का उल्लेख किया गया है, लेकिन दुनिया में गेहूं की 2,000 से अधिक किस्में हैं। भारत में 448 प्रकार के गेहूं की खेती होती है। इसी तरह, चावल की 40,000 किस्में हैं। लेकिन इन विविधताओं का भविष्य भी संकट में है।
एक सदी पहले, अमेरिका में गोभी की 550 किस्में थीं, जिनमें से अब केवल 28 बची हैं। मक्के की 300 किस्मों में से सिर्फ 12 बची हैं। यूरोप में, मटर की 400 से अधिक किस्में थीं, लेकिन अब केवल 25 ही बची हैं। यह सिलसिला 21वीं सदी में भी जारी रहेगा, जिससे सैकड़ों फसलों की उप-प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी।
वर्तमान में, वैश्विक कृषि उत्पादन 9.9 अरब टन है, जिसमें 3.7 अरब टन अनाज का उत्पादन होता है। इसमें भी मक्का, गेहूं और चावल का 91% हिस्सा है। अनाज के बाद सबसे अधिक उत्पादन गन्ने (2.1 अरब टन) और सब्जियों-फलों (2 अरब टन) का होता है। खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए पाम, सोयाबीन, मूंगफली, कपास और सूरजमुखी का उत्पादन लगभग 90 करोड़ टन होता है।
संक्षेप में, अनाज का उत्पादन एक ओर और बाकी सब कुछ दूसरी ओर। फसलों की विविधता का यह ह्रास न केवल कृषि बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर संकट बन सकता है।

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