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वक्फ कानून पर संग्राम ; सुप्रीम कोर्ट की सख्त चेतावनी और मुस्लिम समाज की नाराज़गी, लेकिन क्या समाधान की कोई राह है?

भारत में वक्फ संपत्तियों का इतिहास सदियों पुराना है। इन्हें अल्लाह की अमानत माना जाता है, जिनका इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य और जनकल्याण जैसे धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा पेश और पारित किए गए वक्फ संशोधन कानून 2025 ने एक बार फिर इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला दिया है।

जहां एक ओर सरकार इसे पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में एक जरूरी कदम बता रही है, वहीं मुस्लिम समाज और कई संवैधानिक विशेषज्ञ इसे धार्मिक अधिकारों पर हमला मान रहे हैं। मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, और कोर्ट खुद इस पर गहरी चिंता जता चुका है — खासकर देशभर में हो रही हिंसा और सांप्रदायिक तनाव को लेकर।

 सुप्रीम कोर्ट की सख्ती: “हिंसा से दबाव न बने”

16 अप्रैल 2025 को हुई लंबी सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने दो टूक कहा — “हिंसा का इस्तेमाल कानून पर दबाव बनाने के लिए नहीं हो सकता।” कोर्ट ने यह भी पूछा कि 14वीं और 16वीं सदी की मस्जिदों का क्या होगा, जिनके पास न तो सेल डीड है, न ही पुख्ता दस्तावेज? क्या उन्हें अवैध घोषित कर दिया जाएगा?

“वक्फ बाई यूजर” की अवधारणा — यानी परंपरा और उपयोग से चली आ रही संपत्तियों की मान्यता — को खत्म करना सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक न सिर्फ ऐतिहासिक गलतियों को नज़रअंदाज़ करना होगा, बल्कि सामाजिक टकराव को भी बढ़ावा देगा।

 याचिकाकर्ताओं की मुख्य आपत्तियाँ

वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, राजीव धवन और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे दिग्गजों ने संशोधित कानून को संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन बताया, जो हर धार्मिक समूह को अपने धार्मिक मामलों का संचालन करने का अधिकार देता है। मुख्य आपत्तियाँ निम्नलिखित थीं:

  1. वक्फ डीड की अनिवार्यता – कई पुरानी वक्फ संपत्तियाँ दस्तावेजों के बिना पीढ़ियों से मौजूद हैं।

  2. गैर-मुस्लिमों की वक्फ बोर्ड में एंट्री – इसे धार्मिक अधिकारों पर सीधा हमला बताया गया है।

  3. सरकारी अधिकारियों को संपत्ति विवाद में अंतिम निर्णयकर्ता बनाना – न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी मानी जा रही है।

  4. 5 साल से मुसलमान होने की शर्त – यह शर्त विवादास्पद मानी जा रही है, जिससे धार्मिक पहचान पर सरकारी दखल का खतरा है।

सरकार का पक्ष: पारदर्शिता और जवाबदेही ज़रूरी

सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वक्फ रजिस्ट्रेशन 1995 से ही अनिवार्य था, अब उसे सख्ती से लागू किया जा रहा है। मुतवल्ली (प्रबंधक) की जवाबदेही तय करना जरूरी है ताकि फर्जी दावे और अवैध कब्जों को रोका जा सके।

 वक्फ क्या है?

वक्फ एक इस्लामी व्यवस्था है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपनी चल-अचल संपत्ति को अल्लाह के नाम पर दान करता है। यह संपत्ति फिर समाज की सेवा—जैसे स्कूल, अस्पताल, कब्रिस्तान या मस्जिद—के लिए आरक्षित हो जाती है और इसे बेचा या व्यक्तिगत लाभ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

भारत में वक्फ संपत्तियों का इतिहास 12वीं सदी से जुड़ा है। आज लगभग 9.4 लाख एकड़ भूमि वक्फ बोर्ड के पास है — जो रक्षा और रेलवे के बाद तीसरी सबसे बड़ी भूमि स्वामित्व वाली संस्था है।

समाधान ज़रूरी, संघर्ष नहीं

इस मसले की गहराई में जाएँ तो यह सिर्फ एक कानूनी या धार्मिक विवाद नहीं है — यह आस्था, इतिहास और पहचान का भी मुद्दा है। सरकार की पारदर्शिता की कोशिश सही हो सकती है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता और समुदाय की भावना की कीमत पर नहीं।

क्या सही रास्ता है?

  • सरकार को चाहिए कि धार्मिक संगठनों से संवाद करे, ताकि उन्हें विश्वास में लेकर पारदर्शिता की प्रक्रिया तय की जा सके।

  • वक्फ की संपत्तियों का सर्वेक्षण निष्पक्ष एजेंसी से कराया जाए।

  • “वक्फ बाई यूजर” को खत्म करने के बजाय एक विशेष तंत्र से उसकी समीक्षा हो।