अनंत लक्ष्मण कान्हरे औरंगाबाद के निवासी थे और स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी थे। वह वीर सावरकर द्वारा स्थापित क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत’ के सक्रिय सदस्य थे। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने खुद को मानसिक रूप से मजबूत करने के लिए जलती हुई चिमनी पर दो मिनट तक अपनी हथेली रखी थी। उस समय सावरकर लंदन में थे, इसलिए इस संगठन की अधिकांश जिम्मेदारियां कान्हरे के कंधों पर थीं।
लंदन में जब मदनलाल धींगड़ा ने कर्ज़न वायली की हत्या की खबर भेजी, तो अनंत कान्हरे भी किसी निर्दयी अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतारने के लिए बेचैन हो उठे। जल्द ही उन्हें उनका निशाना मिल गया – नासिक के कलेक्टर जैक्सन।
जैक्सन ने क्रांतिकारियों को कठोरतम दंड देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसी दौरान, वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर को सिर्फ एक राष्ट्रवादी कविता लिखने के अपराध में आजीवन काला पानी की सजा दी गई थी, और यह फैसला जैक्सन ने ही सुनाया था। इससे आहत होकर कान्हरे और उनके साथियों ने जैक्सन को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई।
हत्या की योजना और दिन तय हुआ
21 दिसंबर 1909 को जैक्सन की नासिक से पूना तबादला होने के कारण, उसके सम्मान में विदाई समारोह आयोजित किया गया। इसके तहत विजयानंद सभाभवन में रात को ‘शारदा’ नाटक का आयोजन हुआ।
अनंत कान्हरे अपने दो साथियों कृष्ण करवे और विनायक देशपांडे के साथ हथियारों से लैस होकर तय समय पर सभाभवन पहुंच गए। कुछ दिनों पहले ही सावरकर ने लंदन से उनके लिए माउज़र पिस्तौल भेजी थी। इसके अलावा, उनके पास एक निकेल-प्लेटेड रिवॉल्वर भी थी।
कान्हरे ने अपनी सीट ठीक उस जगह पर चुनी, जहां से जैक्सन को गुजरना था। योजना यह थी कि अगर कान्हरे निशाना चूकते हैं, तो करवे गोली चलाएंगे, और अगर करवे भी चूक गए, तो देशपांडे फायरिंग करेंगे।
क्रांतिकारी हमला: जैक्सन की हत्या
जैसे ही जैक्सन सभागार में प्रवेश किया, अनंत कान्हरे ने उस पर गोली चला दी, लेकिन निशाना चूक गया। बिना समय गंवाए, उन्होंने दूसरी गोली दागी, जो जैक्सन के हाथ में लगी। जैक्सन नीचे गिर पड़ा, लेकिन कान्हरे ने लगातार कई गोलियां उसकी छाती में दाग दीं, जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गई।
जिस जैक्सन को नासिक से सिर्फ पूना जाना था, वह अब हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हो गया!
गिरफ्तारी और फांसी
हत्या के तुरंत बाद अनंत कान्हरे को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ कृष्ण करवे और विनायक देशपांडे पर भी मुकदमा चला। अदालत ने तीनों को फांसी की सजा सुनाई, जबकि एक अन्य साथी को दो साल की कैद दी गई।
7 अप्रैल 1910 को थाणे की विशेष जेल में तीनों क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दे दी गई।
अनंत कान्हरे: एक अमर बलिदानी
अनंत कान्हरे ने केवल 25 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के वीर क्रांतिकारी अत्याचार सहने के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को जड़ से खत्म करने के लिए बने थे। उनका बलिदान भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
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