“हमारे और आसपास के गांवों में तुम्हारे पति के गुजर जाने के बाद कोई नाई नहीं है। तुम अपने पति का व्यवसाय फिर से शुरू करो।”
“मेरे पास जीवन जीने के दो ही रास्ते थे। या तो मैं और मेरी बेटियां आत्महत्या कर लें, या फिर मैं अस्त्र (कैंची, ब्लेड) हाथ में लेकर अपने पति के व्यवसाय की राह पर आगे बढ़ूं।”
ये शब्द हैं भारत की पहली महिला नाई शांता बाई यादव के, जिनकी कहानी साहस, संघर्ष और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।
संघर्ष की शुरुआत
शांता बाई यादव का जन्म महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में एक नाई परिवार में हुआ। महज 12 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। पति के साथ जीवन ने शांता को दुनियादारी सिखाई। उनकी पति खेती और नाई का काम करते थे, जिससे परिवार का गुजारा हो जाता था।
शुरुआती जीवन सुखमय था। शांता और उनके पति ने चार बेटियों के साथ एक खुशहाल परिवार की कल्पना की थी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। शांता के पति का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया। उस समय उनकी सबसे बड़ी बेटी सिर्फ 6 साल की थी और सबसे छोटी कुछ महीनों की।
भूख और संघर्ष
पति की मृत्यु के बाद शांता बाई पर चार बेटियों को पालने का जिम्मा आ पड़ा। उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय थी। उन्हें खेतों में मजदूरी करनी पड़ी, जहां दिनभर काम करने के बावजूद सिर्फ 1 रुपया या 50 पैसे ही मिलते थे। कई बार परिवार को दो दिन में एक बार खाना नसीब होता।
शांता बाई ने हर संभव कोशिश की, लेकिन उनकी बेटियों के भविष्य के लिए रास्ता नहीं सूझ रहा था। हताशा में उन्होंने सामूहिक आत्महत्या का मन बना लिया।
एक साहसिक निर्णय
गांव के सरपंच हरिभाऊ को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने शांता बाई को समझाया और नाई का काम फिर से शुरू करने की सलाह दी।
शांता बाई को शुरू में समाज के डर और तानों का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा, “एक औरत के लिए अस्त्र पकड़ना आसान नहीं था। लोग क्या कहेंगे? समाज मुझे स्वीकार नहीं करेगा।”
लेकिन हरिभाऊ ने उन्हें हिम्मत दी। शांता बाई ने अपने पति के औजारों को इकट्ठा किया और घर के आंगन में छोटा-सा सैलून शुरू किया।
कठिनाइयों का सामना
शुरुआत में गांव वालों ने उनका विरोध किया। परिवार के सदस्य और रिश्तेदार उनसे नाता तोड़ बैठे। पड़ोसी महिलाएं ताने कसती थीं, बच्चे उनकी बेटियों को चिढ़ाते थे।
फिर भी, शांता बाई ने हार नहीं मानी। सरपंच हरिभाऊ उनके पहले ग्राहक बने। धीरे-धीरे, गांव के अन्य पुरुष भी उनकी दुकान पर आने लगे। शांता बाई ने अपनी कला में निपुणता हासिल की और कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ती गईं।
सफलता की ओर
शांता बाई ने सैलून चलाने के साथ-साथ आसपास के गांवों में भी जाकर काम किया। वह स्कूलों में जाकर बच्चों के बाल काटतीं और किसानों के बैलों की सफाई का काम भी करतीं। उनकी मेहनत रंग लाई, और नाई का उनका व्यवसाय बढ़ता गया।
आज, शांता बाई अपनी चारों बेटियों को पढ़ा-लिखाकर उनके जीवन को संवार चुकी हैं।
समाज को संदेश
शांता बाई का कहना है, “जब मैंने इस व्यवसाय की शुरुआत की, तो समाज ने मुझे तानों और बहिष्कार से तोड़ा। लेकिन मैंने अपनी बेटियों के लिए हिम्मत जुटाई। कोई भी काम छोटा नहीं होता। मेरे लिए अस्त्र सिर्फ आजीविका का साधन है। इसमें शर्म कैसी?”
प्रेरणा का स्रोत
शांता बाई यादव की यह कहानी हमें सिखाती है कि साहस और आत्मविश्वास से कोई भी बाधा पार की जा सकती है। उन्होंने यह साबित कर दिया कि विपरीत परिस्थितियों में भी अगर हौसला हो, तो सफलता के रास्ते बन ही जाते हैं।
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