CATEGORIES

November 2024
M T W T F S S
 123
45678910
11121314151617
18192021222324
252627282930  
Thursday, November 21   6:38:17

सिध्दान्तविहीन राजनीति के अनुरूप ही मिले हैं चुनावी परिणाम

चुनावी परिणामों में अनेक बागियों के चेहरों पर खुशी की लाली छा गई है। अभीष्ठ की प्राप्ति न होने के बाद भी वे अपने विरोधी को हराने में कामयाब होने पर बेहद प्रसन्न है। एक तीर में दो निशाने करने वाले बागियों ने खुलेआम पार्टी के वोटों में सेंध लगाई और निजी संबंधों के आधार पर मतों का संग्रह किया। यह अलग बात है कि उनके खाते में आने वाले वोट आशातीत संख्या तक नहीं पहुंच सके।

पार्टी के सिध्दान्तों पर लम्बे समय तक नि:शुल्क वेतनभोगी की तरह काम करने वालों की सशक्त दावेदारी को दलबदलुओं के स्वागत की कीमत पर खारिज करने का खामियाजा दलों को मिलना ही था। अनेक स्थानों पर तो कद्दावर नेताओं की ताबड़तोड़ सभायें भी बेअसर रहीं। विकास का मुद्दा हो या फिर मुफ्तखोरी की घोषणायें सभी के ऊपर जातिवाद का कारक हावी रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्याशी के आधार पर ही मतदान हुआ। धनबल से जनबल सरेआम खरीदा जाता रहा। प्रायोजित खबरें धडल्ले से छपतीं और दिखती रहीं। वाहनों के काफिले की धूल से कानून पर गर्द की मोटी परत जमती रही। प्रत्याशियों तथा उनके समर्थकों पर आपराधिक कृत्यों के आरोप लगाये जाते रहे।

ऐसे में उम्मीदवार को मिले सुरक्षाकर्मियों की भूमिका को अदृष्टिगत करते हुए पुलिस का कार्यवाही भी अनेक स्थानों पर औपचारिकता से आगे नहीं बढी। कार्यपालिका के अनेक अधिकारियों का मनमाना चेहरा एक बार फिर सामने आया परन्तु प्रत्याशियों की व्यवसायिक पृष्ठभूमि ने उस पर ध्यान केन्द्रित न करने की स्थिति निर्मित कर दी। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में धनबल, बाहुबल और जनबल का बोलबाला निरंतर बढता जा रहा है।

अनेक चर्चित चेहरों की हार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि काम के आधार पर लोगों के वोट नहीं बटोरे जा सकते, इसके लिये जातिगत, व्यक्तिगत और स्वार्थगत वैभव की नितांत आवश्यकता होने लगी है। एक कर्मठ, ईमानदार और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्वाचित होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस देश में लालबहादुर शास्त्री के वंशज हारते रहे और फूलनदेवी जैसे प्रत्याशी जीत का परचम फहराते रहे। आतंक के साये में जीने वाले आम नागरिक को मिलने वाली निर्वाचन के उपरान्त की सुरक्षा व्यवस्था निरन्तर लचर होती जा रही है। दुर्गम इलाके की कौन कहे महानगरों तक में बिना सिफारिश के ज्यादातर थानों में प्रार्थना पत्र तक स्वीकार नहीं किये जाते है। पटवारी साहब से खेत की पैमाइश करवाने के लिए भी नाकों चने चबाना पडते हैं। मनमानी प्रविष्टियों को सुधरवाने का दायित्व पीडित का ही होता है जबकि किन्हीं खास कारणों से जानबूझकर किये जाने वाले पद के दुरुपयोगों के अधिकांश मामलों को लम्बित फाइलों में बंद कर दिया जाता है।

वर्तमान में केवल और केवल न्यायपालिका की ओर ही नागरिकों की आशा भरी नजरें केन्द्रित हैं। अनेक प्रकरणों में तो कार्यपालिका की मनमानी के कारण अवमानना तक की स्थिति निर्मित हो जाती है। ऐसे में चुनाव की कमान सम्हालने वाले आरोपी अधिकारियों की कार्यशैली पर नैतिकता का अंकुश लगना मुश्किल होता जा रहा है। जब तक सदन के अन्दर जनप्रतिनिधि बनकर प्रतिभाशाली, पारदर्शी और ईमानदार व्यक्ति नहीं पहुंचेगे तब तक कार्यपालिका की व्यवहारिक कार्यशैली में सकारात्मक परिवर्तन की आशा करना किसी मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही होगा। राजनैतिक दल सिध्दान्तविहीनता के नये मापदण्ड तय करते चले जा रहे हैं। नेताओं की निष्ठा पार्टी से हटकर पद पर जा टिकी है। नागरिकों को मुफ्तखोरी का जहर पिलाया जा रहा है। ऐसे में देश को बरबादी की कगार पर पहुचने से बचाने हेतु कब तक चन्द लोग अपने खून की आहुतियां देते रहेंगे। यदि सब कुछ यूं ही चलता रहा तो एक न एक दिन खून की बूंदे समाप्त हो जायेंगी और खाल के साथ हड्डियां चिपक कर शरीर को चमडा व्यापारियों के कारखानों में पहुंचा देंगीं।

बिना काम के जब राशन, मकान, दुकान, इलाज, शिक्षा, यात्रायें, आनन्दम् समारोह और नगद राशियां निरंतर देने के दावे करने वाले निश्चय ही जवानी में जंग और देश के तंग होने के हालात निर्मित करने में लगे हैं। सदन में पहुंचने वाले अधिकांश कानून के निर्माताओं को सबसे पहले स्वयं की तनख्वाय, भत्ते, स्वेच्छा राशि, सुविधायें बढाने की चिन्ता होती है। तदोपरान्त उनकी प्राथमिकताओं में व्यक्तिगत धन संग्रह के साधनों का विस्तार, परिवार का हित, स्वजनों की सहायता और फिर लाभ कमाने की नियत से किये जाने वाले कथित विकास कार्य होते हैं। ज्यादातर चयनित जनप्रतिनिधि तो अपने कार्य क्षेत्र के अधिकारियों से नजरें मिलाकर बात तक नहीं कर सकते, क्यों कि उनके धन कमाने वाले कारोबारों में सब कुछ कानून सम्मत नहीं होता। सो आम आवाम को दिखाने के लिए प्रत्यक्ष में अधिकारियों को नियमों के पालन का पाठ पढाया जाता है जबकि वे स्वयं ही नियम विरुध्द कार्यो में आकण्ठ डूबे होते हैं। ऐसे हालातों में निर्धारित काल के लिए मिले विधायिका के अधिकारों का उपयोग स्वयं के हितों तक ही सीमित होकर कार्यपालिका की समझाइश के साथ जुगलबंदी शुरू कर देता है। वर्तमान परिदृश्य में सिध्दान्तविहीन राजनीति के अनुरूप ही मिले हैं चुनावी परिणाम। इसे चौंकाने वाली स्थिति कदापि नहीं कही जा सकती। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।