1978 के दंगे: एक समुदाय की दुखभरी कहानी
1978 का दंगा संभल के इतिहास में सबसे घातक था। एक अफवाह के कारण शुरू हुए इस दंगे में 184 से ज्यादा लोगों की जान गई थी। हिंदू परिवारों के लिए यह घटना इतनी भयावह थी कि वे अपनी संपत्ति और घरों को छोड़कर कहीं और बस गए। खग्गू सराय का यह इलाका, जो पहले हिंदू व्यापारियों और परिवारों का था, अब पूरी तरह से मुस्लिम बाहुल्य बन चुका था। मंदिर भी लुप्त हो गया, और धार्मिक गतिविधियां समाप्त हो गईं।
मंदिर का पुनः उद्धार और पूजा का पुनरारंभ
14 दिसंबर को, जब संभल के डीएम राजेंद्र पेंसिया और एसपी कृष्ण बिश्नोई ने बिजली चोरी की जांच के दौरान खग्गू सराय का दौरा किया, तो उन्होंने यह मंदिर देखा, जो कई सालों से बंद पड़ा था। मंदिर के चारों ओर घरों ने घेर लिया था, लेकिन अधिकारियों ने अवैध निर्माण हटाया और मंदिर को फिर से खोला। इसके बाद मंदिर की सफाई की गई, और पूजा आरंभ की गई। अब, मंदिर में एक पुजारी नियुक्त किया गया है, सीसीटीवी कैमरे और बिजली कनेक्शन भी लगाए गए हैं ताकि भविष्य में कोई और अवैध कब्जा न कर सके।
खोए हुए समुदाय की यादें
जिस समुदाय ने खग्गू सराय में अपना घर छोड़ा था, उनके लिए यह मंदिर एक स्मृति के रूप में है। कई हिंदू परिवार, जो अब अन्य स्थानों पर बसे हुए हैं, इस मंदिर को देखने के लिए वापस लौटे। मुकेश रस्तोगी, जिन्होंने 1995 में खग्गू सराय छोड़ दिया था, कहते हैं, “मैं 25 साल बाद इस मंदिर को देख रहा हूं। पहले हम नियमित रूप से यहां आते थे, लेकिन आज यह फिर से खोला गया है, तो यह एक अद्भुत अनुभव है।”
सागीर खान, जो खग्गू सराय में बड़े हुए, बताते हैं, “यहां का माहौल पहले बहुत अच्छा था। हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के साथ रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोग बेहतर जीवन की तलाश में यहां से चले गए।”
सांप्रदायिक हिंसा और उसका प्रभाव
संभल में हुए दंगों का असर गहरा और दूरगामी था। 1978 के दंगों के बाद हिंदू आबादी खग्गू सराय से लगभग पूरी तरह से पलायन कर गई। आज, संभल में हिंदू आबादी सिर्फ 20% बची है, जबकि 1978 में यह 35% थी। मुस्लिम समुदाय के कुछ सदस्य यह मानते हैं कि हिंदू परिवारों का पलायन मुख्य रूप से बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में था, लेकिन अधिकांश हिंदू परिवारों का कहना है कि यह कदम उनकी सुरक्षा और शांति के लिए था।
एक उम्मीद की किरण
खग्गू सराय के इस पुनर्जीवित मंदिर के खुलने से एक नई उम्मीद जागी है। यह सिर्फ एक मंदिर का पुनर्निर्माण नहीं है, बल्कि यह सामूहिक संप्रदायों के बीच समरसता, पुनःसंधान और एकजुटता का प्रतीक भी है। 1978 के दंगों ने जो दीवारें खड़ी की थीं, उनका पुनर्निर्माण अब मुश्किल जरूर है, लेकिन इस मंदिर के पुनः उद्घाटन से यह उम्मीद मिलती है कि एक दिन हम अपनी पुरानी गलतियों को समझकर एक साथ खड़े हो सकते हैं।
संभल का यह मंदिर और उसकी सजीवता केवल धार्मिक स्थल की पुनर्स्थापना का नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की संभावनाओं का प्रतीक है जो कभी हिंसा से टूट चुका था, लेकिन अब उसे सुधारने और फिर से जोड़ने की कोशिशें हो रही हैं।
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