13-04-2023, Thursday
लेखक : नलिनी रावल
प्राचीन भारत देश में सती प्रथा नाबुदी को लेकर कई महत्पूर्ण फैसले लिए गए,जिसमे वडोदरा के महाराजा सयाजीराव द्वितीय का विशेष योगदान है ।उन्होंने वड़ोदरा में सती प्रथा पर आज से ठीक 183 वर्ष पूर्व प्रतिबंध लगाया था, और एक श्रेष्ठ शासक के रूप में स्वयं को स्थापित किया था।
भारत के इतिहास में आज से 300_ 400 साल पहले कई समाजों में सती प्रथा थी।पति की मृत्यु के बाद विधवा हुई स्त्री का सम्मान नही किया जाता था। इन समाजों में स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय हुआ करती थीं। उस काल में महिलाएं पति के पीछे उनकी मृत्यु शैया पर उनके साथ ही जीवित स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देती थी ।इन महिलाओं को मृत्यु के बाद भी पूजा जाता रहा है।यही कमोबेश स्थिति गुजरात और वडोदरा में भी थी।
लेकिन आज से 183 वर्ष पूर्व 13 अप्रैल 1840 का दिन वडोदरा के राजवी इतिहास का सुवर्ण पृष्ठ है।इस दिन स्वामीनारायण संप्रदाय के स्थापक सहजानंद स्वामी में अटूट आस्था रखने वाले महाराजा सयाजीराव द्वितीय ने सती प्रथा को कानूनी तौर पर प्रतिबंधित घोषित किया ।स्वामी जी भी एसी कुप्रथाओ के विरोधी थे। इस प्रतिबंध के चलते अनेकों महिलाएं पति की मृत्यु शैया पर अग्नि में स्वाहा होने से बच गई। और एक व्यक्ति, एक इंसान के रूप में उन्हें वडोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड द्वितीय ने दर्जा दिया।
यहां यह उल्लेखनीय है कि इस प्रतिबंध को लागू किए जाने के15 वर्ष पूर्व वडोदरा में उस समय के रेसिडेंसी के अधिकारी रिचर्ड केनेडी ने अपनी आंखों से विश्वमित्री नदी के पास तत्कालीन गायकवाड़ी अदालत के क्लर्क काशीनाथ अंबूका के निधन पर उनके साथ उनकी पत्नी अंबाबाई को सती होते हुए अपनी आंखों से देखा था ।इस पूरी विधि का उन्होंने ,”The Sati as witnessed in Baroda”नामक उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक में उल्लेख किया है।लंदन के क्वीन स्ट्रीट के किंग प्रिंटर द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक 80 पन्नों की है, जिसमें से 52 पन्ने सिर्फ अंबाबाई की सती विधि पर लिखे गए हैं । रिचर्ड कैनेडी ने यह विधि महज 27 मीटर की दूरी से अपनी आंखों से देखी थी।
वडोदरा के गायकवाड शासन में उस दौर से 200 साल आगे की दीर्घदृष्टि थी। स्त्री शिक्षण,स्त्री पुरुष समान अधिकार ,बाल विवाह और सती प्रथा प्रतिबंध जैसे निर्णय गायकवाडी शासन के इतिहास को सुवर्णमयी बनाते है।
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