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Wednesday, January 8   1:52:37

पुरखों से सीखिए , उन्हें कोसिए मत

बड़े दिनों के बाद भोपाल में एक पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम ने मुझे हैरत में डाल दिया। दिल्ली में लाख कोशिश करिए तो भी किसी किताब के लोकार्पण में बमुश्किल सौ लोग एकत्रित होते हैं। उन्हें डिनर भी कराना पड़ता है। वहाँ एक ही अपवाद है।मध्यप्रदेश के डॉक्टर हरीश भल्ला कोई भी कार्यक्रम करें ,हॉल ठसाठस भर जाता है। चाहे वह किताब का लोकार्पण हो अथवा कोई सुरों की महफ़िल। इसलिए उन्हें मैं देश का सांस्कृतिक राजदूत कहता हूँ।


तो बात हो रही थी भोपाल के इस कार्यक्रम की। मित्र रशीद क़िदवई की किताब भारत के प्रधानमंत्री का लोकार्पण था और इसमें तीन सौ से अधिक पुस्तक शिरक़त करने पहुँचे।बुद्धिजीवी थे ,कलाकार थे ,पत्रकार थे ,लेखक थे ,कवि थे और समाज के तमाम वर्गों के चिंतक विचारक मौजूद थे। आयोजन के सूत्रधार थे जाने माने समाजसेवी और विचारक राजेंद्र कोठारी। उन्होंने किताब पढ़ी और फिर इसके लिए एक जलसा करने का फ़ैसला किया।साहित्यकार और हम सबके प्रिय अग्रज राम प्रकाश त्रिपाठी ने अपनी दिलचस्प क़िस्सागो वाली शैली में संचालन किया और क़रीब ढाई घंटे आमंत्रितों को बाँधकर रखा।इसमें बड़े भाई राजेश जोशी ,वरिष्ठ संपादक चंद्रकांत नायडू ,पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और लेखक मनोज श्रीवास्तव ,विचारक बादल सरोज, सुपरिचित कवि और पत्रकार संपादक मित्र डॉक्टर सुधीर सक्सेना ,लेखक अरुण डनायक ,नब्बे साल के जवान और वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया ,साथी पत्रकार राकेश दुबे,चिंतक शैलेन्द्र शैली,वयोवृद्ध संपादक ,विचारक बाल मुकुंद भारती ,वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह और अनेक जाने माने हस्ताक्षर उपस्थित थे।राज नेताओं में पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रदेश कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी ,पूर्व सांसद प्रताप भानु शर्मा और समारोह के बाद शामिल हुए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी इसमें मौजूद थे। मुझे भी इस पुस्तक पर विचार रखने के लिए न्यौता गया था।

दरअसल नाम से लगता है कि यह कोई प्रधानमंत्रियों के जीवन परिचय जैसी कोई पाठ्यपुस्तक नुमा किताब होगी।पर, ऐसा नहीं है । हिन्दुस्तान के पंद्रह प्रधानमंत्रियों का इस देश के लोकतंत्र से रिश्ते को ढाई सौ पन्नों में समेटना कोई आसान काम नहीं था। ख़ासकर जब उनमें जवाहरलाल नेहरू ,इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी ,पी वी नरसिंह राव ,अटल बिहारी वाजपेयी और डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसी शख़्सियतें शामिल हों। भाई रशीद क़िदवई ने गागर में सागर भरने का काम बख़ूबी किया।जिन लोगों ने किताब पढ़ ली थी ,उन सबने रशीद की शैली और प्रवाह को सराहा। चाहे वे बादल सरोज हों ,सुरेश पचौरी हों या राजेश जोशी। राकेश दुबे और चंद्रकांत नायडू ने अपने अलग अंदाज़ में किताब की उपयोगिता रेखांकित की।बतौर वक्ता ,मैंने भारतीय लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता को मज़बूत करने वाले प्रधानमंत्रियों के बारे में बात की। पुराने दौर के राजनेताओं के आपसी संबंधों में मानवीय मूल्यों की गिरावट पर मैंने क्षोभ भी प्रकट किया। कुल मिलाकर यह एक यादग़ार शाम रही। चित्र इसी कार्यक्रम के हैं।