जब यह देश आज़ाद हुआ तो किस हाल में था। बँटवारे की छुरी कलेजे पर चली थी। अँगरेज़ों ने जी भरकर लूटा था।न पेट भर अनाज था न तन ढकने को कपड़े और न बच्चों के लिए दूध। पढ़ने के लिए स्कूल ,कॉलेज,इंजीनियरिंग ,मेडिकल कॉलेज नाम मात्र के थे। उद्योग धंधे नहीं थे।हर हाथ को काम नहीं था। सब कुछ छिन्न भिन्न था। इस हाल में भारत ने अपने आप को समेटा और तिनका तिनका कर अपना मज़बूत लोकतांत्रिक घोंसला बनाया।
अफ़सोस हमारी नई पीढ़ी संघर्ष के उस दौर से परिचित नहीं है। मैनें इन नौजवानों के लिए एक छोटी सी पुस्तिका लिखी है – हिंदुस्तान का सफ़र। दरअसल इससे पहले मैनें इसी विषय पर एक फ़िल्म बनाई थी। उसे जाने माने गांधीवादी और गांधी जी के साथ वर्षों काम कर चुके प्रेमनारायण नागर ने देखा।नागर जी 96 बरस के हैं और सदी के सुबूत की तरह हमारे सामने हैं।
उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए भोपाल के गौरव फाउंडेशन ने यह पुस्तिका प्रकाशित की है।गौरव फाउंडेशन के प्रेरणा पुरुष और माधव राव सप्रे स्मृति राष्ट्रीय संग्रहालय के संस्थापक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर की देख रेख में यह पुस्तिका उपयोगी बन पड़ी है।इसका लोकार्पण उज्जैन विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वाग्देवी भवन में हुआ। इसमें श्रीधरजी के अलावा स्वयं प्रेमनारायण नागर जी,विवि के कुलपति अखिलेश पांडे,पूर्व कुलपति डॉक्टर रामराजेश मिश्र ,विभागाध्यक्ष डॉक्टर प्रोफेसर शैलेन्द्र शर्मा,जानी मानी लेखिका डॉक्टर मंगला अनुजा ,नेहरू युवा केंद्र के संभागीय निदेशक श्री अरविन्द श्रीधर समेत अनेक विद्वान,पत्रकार, लेखक और छात्र-छात्राएँ मौजूद थे।ज़ाहिर है इस कार्यक्रम में नागरजी को सुनने से बेहतर और कोई अनुभव नहीं हो सकता था ।
आज भी उन्हें अस्सी पचासी साल पुराने भारत की कहानी याद है।सन 1924 में जन्में श्री नागर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के निर्देश पर हज़ारों कार्यकर्ताओं के साथ गाँवों को मज़बूत बनाने के मिशन पर निकल पड़े थे।गांधीजी ने 8 अक्टूबर,1946 को खादी ग्रामोद्योग से जुड़े अपने कार्यकर्ताओं को बुलाया और उनसे कहा , “असल तस्वीर देखनी है तो शहरों में नहीं गाँवों में जाओ।ग्रामीण क्षेत्रों के काम -धंधों को बचाना ही पर्याप्त नहीं है।उनमें सुधार लाकर गाँव के लोगों को रोज़गार भी देना होगा।श्री नागर कहते हैं,” बापू के निर्देश पर मैं और मेरे साथी ग्वालियर तहसील में भांडेर से पंद्रह किलोमीटर दूर गाँव उड़ीना पहुँचे।उन दिनों वहाँ जाने के लिए कोई सड़क नहीं थी और न कोई अन्य बुनियादी ढांचा।बरसात के दिनों में तो दो नदियों को तैरकर पार करना पड़ता था।
मैं उस क्षेत्र में एक साल तक काम करता रहा।उन्ही दिनों पास के गाँव भिटारी भरका में आपसी संघर्ष में एक दलित श्रमिक को मार डाला गया।पास के पड़ोखर थाने से पुलिस आई।भांडेर से तहसीलदार जाँच के लिए उस श्रमिक के घर पहुँचा।उस परिवार की ग़रीबी को देखकर वह द्रवित हो गया।उसने अंतिम संस्कार और कुछ समय तक पेट भरने के लिए कुछ आर्थिक सहायता देनी चाही। झोपड़ी के द्वार पर श्रमिक का शव रखा था। देहरी पर उसकी बेटी बैठी आँसू बहा रही थी। गाँव के चौकीदार ने उससे कहा कि अपनी माँ को बाहर लेकर आ। साहब कुछ मदद देना चाहते हैं।
रोती हुई बेटी ने कहा कि अम्मा बाहर नहीं आएगी।उससे बार बार कहा गया लेकिन हर बार उसने मना कर दिया।जब बहुत देर तक उसने माँ को नहीं बुलाया तो चौकीदार ने कहा कि मैं अंदर जाकर मिल लेता हूँ। तब उस बिलखती बेटी ने बेबसी से कहा ,” अम्मा बाहर नई आ सकत। वा नंगी बैठी है।उसके पास एकई धोती( साड़ी ) हती । वा दद्दा ( पिता ) पै डार दई तो कैसें बाहर आहै “। ( इसी पुस्तिका -हिंदुस्तान का सफ़र का एक अंश )चित्र इसी कार्यक्रम के हैं।
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