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Sunday, September 8   1:43:50

“आज जन्मदिन पर छुटपन की याद”- राजेश बादल

राजेश बादल
सबकी क़िस्मत एक जैसी नहीं होती। चाहा हुआ कभी पूरा होता है क्या ? हाँ यह ज़रूर हर इंसान को लगता है कि उसकी ज़िंदगी में ही सबसे ज़्यादा ग़म हैं। दूसरे की थाली में घी अधिक दिखता है।जब हम अपने आसमान के सितारों को देखते हैं तो लगता है कि वे कोई चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए थे।तभी तो क़ुदरत ने उन्हें दौलत और शौहरत का अनमोल ख़ज़ाना बख्शा है। मगर यह सच नहीं है।इन महानायकों की ज़िंदगी भी दुःख,अवसाद ,पीड़ा और वेदना से भरपूर होती है।आप जानेंगे तो लगेगा – उफ़ ! कैसे ये लोग जी पाए ? हम होते तो मर ही जाते। पेश है कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बचपन की दास्तान ,जो एक बारगी हिला कर रख देती है।उन दिनों लोग बनारस से लमही गाँव पैदल ही आते जाते थे। इसी गाँव की एक अँधेरी कोठरी में इकतीस जुलाई अठारह सौ अस्सी को डाक मुंशी अजायब राय के घर तीन बेटियों के बाद बेटा आया। पिता ने नाम रखा – धनपत राय। तीन साल के हुए तो उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाक़े में बांदा आना पड़ा।पांच साल के हुए तो मौलवीजी के पास उर्दू और फ़ारसी पढ़ने जाना शुरू कर दिया।लेकिन खेलने कूदने में ज़्यादा मन लगता था । दुबले पतले थे,लेकिन शरारतें ऐसीं कि बड़ी उम्र के बच्चों को मात करते ।संयुक्त परिवार था इसलिए चचेरे भाइयों के साथ दिन भर गुल्ली डंडा खेलते,खेतों से तोड़कर मटर की फलियां खाते ,पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ते,खेत में घुस कर गन्ने उखाड़ते और उनके मालिकों से नज़र बचा कर चंपत हो जाते।माँ आनंदी देवी को कभी बेटे की इन हरकतों पर लाड़ आता तो कभी तमतमा जातीं ।माँ – बेटे की ये बड़ी खूबसूरत जुगलबंदी थी । लेकिन अचानक इस जुगलबंदी को किसी की नज़र लग गई ।माँ आठ साल के धनपत का साथ हमेशा के लिए छोड़ गईं।वो माँ जो धनपत को आँचल में छिपा कर रखतीं थीं। दूसरों की नज़र न लगे इसलिए माथे पर काजल का डिठौना रोज़ लगातीं थीं ,वही माँ अब जा चुकीं थीं । घर की स्थिति डाँवाडोल थी ।बदन पर पूरे कपड़े नहीं ,पैरों में जूते नहीं और मौलवीजी को देने के लिए फीस नहीं । न कोई खाने को पूछता न पढ़ाई की चिंता करता।पिता भी माँ की मौत के बाद रोज़ शराब पीने लगे थे ।वर्षों बाद धनपतराय ने माँ से जुदाई के पलों को कुछ इस तरह बयान किया,
“छह महीने तक बीमार थीं ।मैं सिरहाने बैठ कर पंखा झला करता था…जब माँ मरने लगीं तो मेरी बहन ,मेरे भाई और मेरा हाथ पिताजी के हाथ पर रखा और बोलीं ,”अब मैं जाती हूँ । तीनो बच्चे अब तुम्हारे हवाले हैं । बहन ,भाई ,पिता और घर के सारे लोग रो रहे थे ।मेरी समझ में कुछ नहीं आया।कुछ दिन बाद बहन अपनी ससुराल चली गई ।दादी भी लमही लौट गईं ।पिताजी काम पर चले जाते । मैं और भैया रह जाते । वो मुझे दूध में शकर डाल कर खूब खिलाते ,पर माँ का वो प्यार कहाँ ? मैं अकेले में बैठा माँ को याद करता और घंटों रोता रहता “।
पिताजी की दिलचस्पी धनपत की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नहीं रह गई थी न ही उनकी पढ़ाई लिखाई पर उनका ध्यान होता । शायद वो खुद अपने अकेलेपन से लड़ रहे थे।दो साल ही बीते थे कि पिताजी दूसरी माँ ले आए।धनपत उन्हें चाची कहते थे । पिता बच्चों के लिए चीज़ें लाते,लेकिन उन तक वो नहीं पहुँच पातीं । पिताजी ग़ुस्सा होते ,लेकिन क्या कर सकते थे । बारह साल के धनपत माँ की याद में और तड़प जाते । रात रात भर आंसू बहाते ।सौतेली माँ अपने छोटे भाई को भी मायके से साथ लाईं थीं । उमर में धनपत से छोटे थे इसलिए उनसे दोस्ताना ताल्लुक़ बन गए थे।उन दिनों पचहत्तर पैसे हर महीने स्कूल की फीस देनी पड़ती थी।चाची से फीस मांगते तो फटकार मिलती। धनपत की डबडबाई आँखों में माँ का चेहरा तैरने लगता ।अब तो शरारतें करने को भी जी नहीं करता था क्योंकि नई माँ अपनी माँ की तरह माफ़ नहीं करतीं न ही लाड़ करतीं ।उल्टे पिता से शिक़ायत किया करतीं । इस कारण पिता भी संरक्षण न देते । इस तरह नई माँ और पिता उस बालक मन से बाहर निकल गए ।एक दिन यूँ ही आवारागर्दी करते पास में एक किताबों की दूकान पर जा पहुंचे । दुकानदार बुद्धिलाल ने एक दो दिन तो कहानियों की कुछ किताबें और उपन्यास पढ़ने को दे दीं ,मगर रोज़ रोज़ तो ये मुमकिन नहीं था ,लिहाज़ा दोनों के बीच कारोबारी समझौता हो गया ।बुद्धिलाल रोज़ अंग्रेज़ी की कुंजी और अन्य विषयों के नोट्स बेचने के लिए धनपत को देते। बदले में धनपत उपन्यास और कहानियों की किताबें पढ़ने को ले जाता । देखते ही देखते धनपत ने दुकान की सारी किताबें पढ़ डालीं । धनपत के भीतर किताबों की ऐसी भूख जगी कि तेरह साल की उमर में मौलाना फ़ैज़ी के पच्चीस हज़ार से ज़्यादा पन्ने पढ़ डाले,रेनॉल्ड की मिस्ट्रीज ऑफ द कोर्ट ऑफ लंदन की अनगिनत किताबें ,मौलाना सज़्ज़ाद हुसैन की ढेरों किताबें ,मिर्ज़ा रुसवां की उमराव जान अदा समेत सारे उपन्यास ,रतन नाथ सरकार की सारी कहानियां । यहाँ तक कि भारतीय संस्कृति के प्रतीक सारे पुराण पढ़ लिए । उस समय तक वो उर्दू और फारसी में ही पढ़ते थे इसलिए नवल किशोर प्रेस ने जब पुराणों का उर्दू अनुवाद छापा तो धनपत उन पर टूट पड़े । आप कह सकते हैं कि धनपत राय या नवाब के भीतर एक प्रेमचंद ने इसी दौर में आकार लिया ।धनपत पंद्रह साल के थे ,जब नवीं क्लास में पढ़ने के लिए बनारस जाना पड़ा । पिताजी ने पांच रूपए महीने तय कर दिए ।रोज़ आठ किलोमीटर पैदल जाते और लौटते।चूंकि पांच रूपए में पढ़ाई का खर्च नहीं निकलता था इसलिए ट्यूशन करना पड़ा । ट्यूशन से भी पांच रूपए मिल जाते।होता ये कि सुबह आठ बजे घर से बनारस के लिए निकलते।भागते दौड़ते स्कूल पहुँचते ।साढ़े तीन बजे छुट्टी हो जाती ।फिर पैदल बांस फाटक जाते-करीब तीन किलोमीटर । ट्यूशन पढ़ाते और छह बजे तक । फिर निकल पड़ते गाँव के लिए । आठ बजे रात को घर पहुँचते । रात को केरोसिन की कुप्पी में होम वर्क करते और सो जाते ।बचपन दम तोड़ रहा था । इसी बीच चाची के पिता ने एक लड़की धनपत राय के लिए देख ली ।धनपत भी खुश थे ।माँ के बाद ज़िंदगी में कोई महिला तो आएगी,जो उनका ख्याल रखेगी ।दरअसल जिन लोगों को ज़िंदगी में माँ का भरपूर प्यार नहीं मिलता ,वो अपने जीवन में आने वाली सभी महिलाओं में माँ का भी एक अंश देखते हैं -यह सोचते हुए कि शायद वो महिला कहीं न कहीं माँ की तरह ख्याल रखेगी । पर शायद ऐसा कम ही होता है । बस्ती ज़िले के एक गाँव में धनपत का ब्याह हो गया । ऊँटगाड़ी में पत्नी को लेकर लौटे । शादी के बाद पता चला कि उसकी उमर धनपत से ज़्यादा थी । वर्षों बाद उन्होंने लिखा
,” मैंने उनकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया । बदसूरत होने के अलावा कर्कश भी थीं । उन्हें अफीम की लत थी , रंग काला था ,चेचक के दाग थे ,एक टांग छोटी थी और भी कुछ था ,जिसे न बताना ही बेहतर। ग़ुस्सा होतीं तो कहतीं – मैं बंगाल का काला जादू जानती हूँ। बछड़ा बनाकर खूँटे से बाँध दूँगी। “
फिर भी धनपत ने गृहस्थी की गाड़ी खींचने का फैसला किया लेकिन मुश्किल यह थी कि सौतेली माँ याने चाची और उनकी पत्नी में नहीं बनती थी । धनपत भारत के आम पति की तरह दो पाटों में पिस गए।किशोर और कोमल मन पर पत्नी नाम की संस्था को लेकर गहरा धक्का लगा ।फिर भी वो रिश्ते को ढोते रहे।पिताजी को अफ़सोस और दूसरी पत्नी पर गुस्सा था । बोले ,” अफ़सोस ! तुम्हारे पिता ने मेरे गुलाब से बेटे को कुएँ में धकेल दिया ।पिता जी इतने सदमें में थे कि बीमार पड़ गए ,बिस्तर पकड़ लिया । सेवा में लगे धनपत मेट्रिक का इम्तिहान न दे पाए । पिताजी की तबियत बिगड़ती गई और डेढ़ बरस के भीतर ही चल बसे।धनपत अपने माता पिता को खो चुके थे।गहरे संकट में थे ।अगले साल जैसे तैसे परीक्षा पास की ,लेकिन सेकंड डिवीजन ही आई । अब फीस माफ़ नहीं हो सकती थी और फीस भरकर आगे की पढ़ाई जारी रखने की हैसियत नहीं थी । सौतेली माँ ,उनके बच्चे और पत्नी का बोझ उनके कदमों को पढ़ाई से रोक देता था । इन्ही दिनों एक वकील साहब के बेटे को ट्यूशन का काम मिल गया।पांच रूपए महीने मिलते।तीन रूपए घर भेजते और दो रूपए में अपना खर्च चलाते।वकील साहब ने अपनी कोठी में घुड़साल में जगह दे दी । वहीं एक टाट के टुकड़े को बिस्तर बनाया और दो पत्थरों का चूल्हा ।एक दो बर्तन घर से ले आए ।सुबह खिचड़ी पका लेते ।शाम को अक्सर भूखे सोना पड़ता । कभी कभी तो दोनों टाइम पानी से पेट भरना पड़ता । लेकिन ऐसी नौबत भी आती कि ट्यूशन के पांच रूपए मिलने पर भर पेट खाने की चाह हलवाई की दूकान पर ले जाती ।परिणाम ये कि उधारी चढ़ जाती ।कपड़े फट गए तो दूकान पर ढाई रूपए उधार कर दिए । दर्ज़ी का तकाज़ा बढ़ता गया तो उसकी दूकान के सामने से निकलना बंद कर दिया । तीन साल बाद उधारी चुकी । एक बार एक मज़दूर से पचास पैसे उधार लिए जो उसने पांच साल बाद घर आकर जबरन वसूले। एक बार दो दिन तक कुछ भी खाने को न मिला। ग़ुस्सा इतना आया कि गणित की किताब बेची और एक रूपए मिला तो पेट भर खाना खाया। गणित की किताब इसलिए बेची क्योंकि इसी विषय ने उनकी डिवीजन बिगाड़ी थी।अगर गणित में अच्छे अंक आते तो फीस माफ़ हो जाती और पढ़ाई चलती रहती ।कहावत है ,मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है । किताब बेच कर दूकान से निकले तो बड़ी बड़ी मूछों वाले एक रौबीले सज्जन ने रोक लिया ।बातचीत शुरू कर दी ।वो चुनार में मिशन स्कूल के हेडमास्टर थे।उन्होंने स्कूल में शिक्षक पद के लिए ऑफर किया।वेतन सुनकर धनपत उछल पड़े।अठारह रूपए महीने ।माई गॉड । सपना तो नहीं ।धनपत की लॉटरी लग गई । एक हफ्ते के भीतर स्कूल में काम संभाल लिया । चुनार बनारस से क़रीब पचास किलोमीटर दूर मिर्ज़ापुर के पास था ।पांच रूपए का एक ट्यूशन भी करने लगे याने तेईस रूपए महीने ।आमदनी तो बढ़ी ,लेकिन यह देखकर चाची याने सौतेली माँ ने भी हाथ खोल दिए।हर महीने रुपयों का तकाज़ा कुछ इस अंदाज़ में होता मानो धनपत ने उनसे क़र्ज़ लिया हो । चाची ने अपने छोटे भाई को चुनार में धनपत के साथ रखा था। उनका खर्च भी उठाना पड़ता था । एक बार तो ऐसा हुआ कि धनपत घर आए और चाची को उनके खर्च के पैसे दिए । जो उनके लिए बचे पैसे थे वो भी संभाल कर रखने को दे दिए ।धनपत ने सोचा कि अगर उन्होंने अपने पास पैसे रखे तो उन्हें बचा नहीं पाएंगे।जब छुट्टियां ख़त्म हुईं तो चाची से पैसे मांगे ।उत्तर मिला,वो तो खर्च हो गए । धनपत परेशान । लौटने के लिए किराया तक न था ।कड़ाके की ठंड। बाज़ार गए। दो रूपए में अपना गरम कोट बेचा तब कहीं जाकर नौकरी पर पहुँच पाए । उमर तो बाईस साल ही थी ,लेकिन इस दौरान ज़िंदगी ने उन्हें पूरी उमर के भरपूर अनुभव दे दिए थे । इसी बीच धनपत राय की नौकरी इलाहाबाद के मॉडल स्कूल में लग गई । वो हेड मास्टर हो गए थे और वेतन था पच्चीस रूपए माह ।तीन महीने ही बीते थे कि तबादला कानपुर हो गया । चाची याने सौतेली माँ और वो पत्नी ,जिससे उनका कोई रिश्ता न था लमही में रह रही थीं । उनकी अपनी ज़िंदगी में ज़हर घुल गया था । पत्नी और चाची के झगड़ों के दो पाटों के बीच वो पिस रहे थे । रोज़ मरते और रोज़ जीते थे । घर के झगडे उन्हें रोज़ मार देते,लेकिन कानपुर के कुछ दोस्त उन्हें रोज़ ज़िंदा कर देते । यहाँ उन्हें एक ऐसा दोस्त मिला ,जिससे उनका नाता आख़िरी सांस तक न छूटा । इस दोस्त ने ही दुनिया को मुंशी प्रेमचंद के रूप में नायाब तोहफा दिया । ये था साप्ताहिक ज़माना का मालिक -संपादक दया नारायण निगम ।धनपत ज़माना के नियमित लेखक थे ही ,निगम जी की कोठी में ही रहा करते थे । निगमजी शौक़ीन तबियत के इंसान थे ।घर में रोज़ महफ़िल जमती ।अपने अपने फ़न में माहिर लोग इकट्ठे होते । धनपत को इन्ही महफ़िलों में कभी कभी पीने की आदत भी पड़ गई ।थोड़े वक़्त के लिए घर के तनाव से राहत मिल जाती । उधर घर के झगड़े ख़त्म होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे थे । एक दिन चाची और बीवी में इतनी महाभारत हुई कि पत्नी ने गले में फाँसी लगा ली । आधी रात का वक़्त था । चाची ने देखा -मामला गड़बड़ है तो किसी तरह उन्हें फांसी के फंदे से उतारा । घबराए धनपत अगले दिन कानपुर से लमही पहुंचे । बीवी ने ज़िद पकड़ ली – मायके जाउंगी । यहाँ न रहूंगी ।धनपत ने लाख मनाया।कोई फायदा न हुआ । हारकर धनपत ने कहीं से कुछ रुपयों का जुगाड़ किया और मायके भेज दिया । इसके बाद न बीवी लौटी और न धनपत ने कोई खबर ली ।
रिश्ता टूट चुका था । हिन्दुस्तान में बहुत से घर इसलिए भी टूट जाते हैं कि शादी के बाद मायके वाले ससुराल में बेटी की ज़िंदगी में दखल देने का कोई मौका नहीं छोड़ते ।पच्चीस साल के धनपत को ज़िंदगी का अकेलापन काटने लगा था ।इसी संघर्ष ने मुंशी प्रेमचंद को एक कथाकार बनाया। इसके बाद एक बाल विधवा शिवरानी देवी से शादी की और आख़िरी सांस तक यह रिश्ता चला।