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इज्जत की दुहाई में कुचली गई मासूमियत ; कब रुकेगा बाल विवाह का ये खेल?

बाल विवाह आज भी समाज की काली सच्चाई है, जिसका शिकार न जाने कितनी लड़कियां होती हैं। कभी समाज की इज्जत बचाने के नाम पर, तो कभी आर्थिक बोझ से बचने के लिए, मासूम जिंदगियों को शादी के बंधन में बांध दिया जाता है। लेकिन कुछ लड़कियां इस अन्याय के खिलाफ खड़ी हुईं, उन्होंने न केवल बाल विवाह को नकारा, बल्कि खुद के लिए एक नई राह भी चुनी।

जब मूंछ की आन पर कुर्बान हुई मासूमियत

“जीजा ने शराब के नशे में कहा कि अगर मेरी साली की शादी तुम्हारे बेटे से नहीं हुई तो मैं अपनी मूंछें कटवा लूंगा।” इस बात को साबित करने के लिए, मतिया की शादी 15 साल की उम्र में जबरन करवा दी गई। 12 साल की उम्र में जब उसे पता भी नहीं था कि शादी का मतलब क्या होता है, तब उसकी जिंदगी का फैसला कर लिया गया। चार दिन की विदाई के बाद उसे वापस भेज दिया गया, लेकिन उसके मन में ससुराल का डर घर कर गया।

मतिया आज 24 साल की है, और अजेसर गांव में बच्चों को पढ़ाकर अपनी रोजी-रोटी कमा रही है। घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर है। पापा लकवे के शिकार हैं और मां के पैरों में रॉड पड़ी है। वह कहती है, “अगर मैं चली जाती तो घर कौन संभालता?” समाज ने उसे ताने दिए, लेकिन उसने ससुराल जाने से इनकार कर दिया।

गीता की लड़ाई: जब बहन ही बनी दुश्मन

गीता की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। उसकी बड़ी बहन ने जीजा के दबाव में आकर उसका निकाह एक शराबी लड़के से करवा दिया। मां चाहती थीं कि बेटी पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो, लेकिन बहन की ज़िद ने उसकी जिंदगी पर दाग लगा दिया। “अगर नहीं गई तो तुझे जिंदा गाड़ देंगे,” ये धमकियां गीता को झेलनी पड़ीं।

लेकिन उसने हार नहीं मानी। मां की तबीयत बिगड़ने के बाद, जब पति ने दूसरी औरत को घर ले आया, तब गीता ने ससुराल जाने से साफ इनकार कर दिया। बाद में तलाक लेकर उसने नई जिंदगी की शुरुआत की।

बाल विवाह: क्यों बनता है लड़कियों की आजादी का दुश्मन?

बाल विवाह न केवल एक लड़की की शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक विकास को बाधित करता है, बल्कि उसे घरेलू हिंसा और उत्पीड़न के जाल में भी फंसा देता है। समाज में मान्यता है कि लड़की की शादी जल्द कर देने से परिवार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है, लेकिन इसका परिणाम लड़की को जीवनभर भुगतना पड़ता है।

 जब मूंछें भारी पड़ती हैं बेटियों की जिंदगी पर

यह कितनी शर्मनाक बात है कि समाज में आज भी बेटियों की जिंदगी की कीमत एक पुरुष की मूंछों की आन से तय होती है। बाल विवाह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक अमानवीय कृत्य है जो लड़कियों के सपनों को कुचल देता है। यह मानसिकता हमें बताती है कि बेटियों को अब भी परिवार और समाज की “इज्जत” का बोझ ढोना पड़ता है।

परिवारों को यह समझना होगा कि बेटियां कोई बोझ नहीं हैं, जिनसे जल्द से जल्द पीछा छुड़ाना है। हर बेटी को यह हक मिलना चाहिए कि वह अपनी जिंदगी के फैसले खुद ले सके। सरकार को भी बाल विवाह के खिलाफ कानूनों को और सख्ती से लागू करना चाहिए।

मतिया और गीता ने अपने हक के लिए खड़े होकर समाज को यह संदेश दिया है कि डर के आगे जिंदगी है। उनकी कहानियां हमें सिखाती हैं कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना ही असली आजादी है। बेटियां तभी सुरक्षित और खुशहाल होंगी, जब समाज अपनी झूठी इज्जत की परिभाषा को बदलने को तैयार होगा।

अब समय आ गया है कि हम बेटियों को उनके हक और सपनों के साथ जीने दें। क्योंकि कोई भी मूंछ, किसी भी बेटी की मुस्कान से बड़ी नहीं हो सकती।