“जहाँ मृत्यु ही जीवन का आधार है, वहाँ एक स्त्री अपने हक के लिए जलती चिताओं के बीच खड़ी है।”
वाराणसी, जिसे मोक्ष की नगरी कहा जाता है, यहाँ हर दिन चिताएँ जलती हैं और अंतिम संस्कार की विधि चलती रहती है। इसी के बीच एक समाज ऐसा भी है, जो इन चिताओं के बिना अधूरा है—डोम समाज। यह समाज सदियों से काशी में अंतिम संस्कार की परंपरा निभा रहा है। लेकिन जब एक महिला डोम इस कार्य को संभालती है, तो समाज उसे चुनौती की नजर से देखता है।
मणिकर्णिका घाट और महिला डोम की भूमिका
मणिकर्णिका घाट, जहाँ कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं इसे मोक्षधाम बनाया, वहाँ चिताएँ कभी बुझती नहीं। परंपरागत रूप से, यह कार्य डोम पुरुषों द्वारा किया जाता था, लेकिन बदलते समय के साथ अब महिलाएँ भी इस परंपरा में शामिल हो रही हैं। सुषमा डोम, जो इस परंपरा को निभाने वाली कुछ गिनी-चुनी महिलाओं में से एक हैं, समाज के विरोध के बावजूद चिताओं को अग्नि देने का कार्य करती हैं।
एक महिला का संघर्ष: परंपरा और पितृसत्ता से टकराव
डोम समाज, जो पहले से ही भेदभाव का सामना करता आ रहा है, उसमें भी महिलाओं को आगे बढ़ने के कम अवसर मिलते हैं। सुषमा डोम जैसी महिलाएँ जब इस परंपरा में कदम रखती हैं, तो उन्हें न सिर्फ समाज बल्कि अपने ही समुदाय के लोगों से भी विरोध झेलना पड़ता है। कई लोग इसे अशुभ मानते हैं, तो कुछ इसे परंपरा के खिलाफ मानते हैं।
लेकिन सुषमा डोम का कहना है:
“जब पुरुष यह कार्य कर सकते हैं, तो महिलाएँ क्यों नहीं? मृत्यु सबके लिए समान है, तो परंपरा में भेदभाव क्यों?”
आर्थिक मजबूरी और आत्मनिर्भरता की ओर कदम
अक्सर डोम समाज के लोग गरीब होते हैं और उनकी आय का मुख्य स्रोत अंतिम संस्कार से जुड़ी सेवाएँ होती हैं। पुरुषों के कमाने में असमर्थ होने या मृत्यु के बाद महिलाओं को मजबूरन यह कार्य संभालना पड़ता है। कई बार यह मजबूरी आत्मनिर्भरता में बदल जाती है, और महिलाएँ खुद की पहचान बनाती हैं।
समाज की मानसिकता और बदलाव की लहर
धीरे-धीरे समाज में बदलाव आ रहा है। अब लोग महिला डोम को भी सम्मान की दृष्टि से देखने लगे हैं। काशी के घाटों पर कई ऐसी महिलाएँ हैं जो इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं और समाज की रूढ़ियों को तोड़ रही हैं।
महिला डोम की कहानी का संदेश
बनारस की महिला डोम की कहानी सिर्फ एक संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि यह समानता, आत्मनिर्भरता और साहस की मिसाल भी है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अगर मृत्यु के बाद सभी एक समान होते हैं, तो जीवन में क्यों नहीं?
काशी की ये महिलाएँ हमें सिखाती हैं कि परंपरा को निभाने का अधिकार किसी एक वर्ग या लिंग तक सीमित नहीं है। अगर आत्मनिर्भरता और संघर्ष का कोई दूसरा नाम होता, तो वह महिला डोम होती।

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