ईसाइयों को लेकर दिए गए हालही में ट्रंप का बयान सुर्खियों में बना हुआ है। अमेरिकी चुनावों से पहले उनके ये बखान चर्चाओं का विषय बने हुए हैं कि आखिर यहां ट्रंप क्या कहने की कोशिश कर रहे थे। एक ओर जहां लोकतंत्र का सिद्धांत और अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रणाली एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। वहीं ट्रंप के ये बयान संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के जिसे सबसे बेहतर लोकतंत्र के उदाहरण के तौर पर देखा जाता है उसपर सवालिया निशान उठा रहे हैं।
पिछले हफ़्ते ट्रंप ने फ्लोरिडा की एक चुनावी रैली में कहा था, ”ईसाइयों बाहर निकलो और सिर्फ़ इस बार वोट कर दो. फिर आपको वोट डालने की ज़रूरत ही नहीं होगी. चार साल में सब सही कर दिया जाएगा. मेरे प्यारे ईसाइयों, आपको फिर वोट डालने की ज़रूरत नहीं होगी. मैं आपसे प्यार करता हूँ.”
अपने चुनावी प्रचार में डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रंप को लोकतंत्र के लिए ख़तरा बताती रही है। साल 2020 में राष्ट्रपति चुनाव में मिली हार के बाद वॉशिंगटन के कैपिटल हिल पर हमला इसका अच्छा उदाहरण भी है।
अमेरिका का लोकतंत्र वैश्विक स्तर पर एक प्रमुख उदाहरण के रूप में देखा जाता है और यह दुनिया के कई अन्य देशों के लिए एक प्रेरणा स्रोत रहा है। इस बीच ट्रंप का यह बयान अमेरिका के भविष्य को लेकर क्या संदेश दे रहा है इसका अंदाजा आप लगा ही सकते हैं। लेकिन, इन दिनों लोकतंत्र की परिभाषा कुछ बदली सी नजर आ रही है। एक उम्मीदवार जिसे निर्वाचिन प्रक्रिया के तहत अपना जनप्रतिनिधि चुना जाता है उसे स्वभाव से भी लोकतांत्रिक होना जरूरी है। और ट्रंप के ये वचन उनकी मंशा को देखकर यही समझ आता है कि शायद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश अब खतरे में है।
डोनाल्ड ट्रंप अपने झूठे और अनुचित बयान बाजियों के चलते दुनियां के मक्कार राजनेता की लिस्ट में शामिल हैं। वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते हुए 30572 से ज्यादा झूठ बोले। झूठ का यह आंकड़ा हरदिन औसतन 21 पर जाकर रूकता है। एक दिन में जो सार्वजनिक जनप्रतिनिधि इतने झूठ बोले, क्या उस पर संसार का कोई सभ्य लोकतांत्रिक समाज यकीन कर पाएगा?
इन दिनों पूरे मुल्क की नजरे अमेरिका के चुनावों में हैं। वे जीते या हारे लेकिन, विश्व बिरादरी की चिंता इस बात को लेकर हैं कि संसार के सबसे आधुनिक और संपन्न लोकतंत्र की तस्वीर कहे जाने वाले मुल्क की बागडोर ऐसे अलोकतांत्रिक स्वभाव वाले व्यक्ति को कैसे दें सकते हैं।
अमेरिका एक ऐसे चौराहे पर है जहां संभावित रूप से दो कमज़ोर दावेदार उन परिस्थितियों में व्हाइट हाउस के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं जो अमेरिकी न्यायिक प्रणाली और उसकी लोकतांत्रिक जड़ों की गहराई की परीक्षा ले सकती हैं। इतिहास हमें बताता है कि भले ही संस्थानों ने अतीत के राष्ट्रपतियों की व्यक्तिगत नैतिक विफलताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया हो लेकिन वो व्यवस्थात्मक विश्वासघात को नहीं भूलते हैं।
अमेरिका की बदलती तस्वीरें अब बाकी मुल्कों के लिए भी चिंता का विषय बनती जा रही है। आज का अमेरिका वो नहीं जो विश्व को अंतरराष्ट्रीय मान्य संस्थाओं से जोड़कर रखता था। आज का अमेरिका केवल विकासशील देशों को जोड़कर रखता है वो भी इसलिए क्योंकि ये देश उसके लिए एक बाजार है जहां से धन मिलता है। और जहां से धन नहीं मिलता वहां चालाकी से अपने मित्र देशों की मददद से अपनी आर्थिक सेहत सुनिश्चित कर ली जाती है।
कई दशकों पूर्व अमेरिका के लोकतंत्र को देखते हुए कई शासकों ने इस प्रणाली को अपनाया है। यह लोकतंत्र कामयाबी से विकास करता है। भारत जैसे देश इसका एक जाना-माना उदाहरण हैं। लेकिन, जिसने भी प्रजातंत्र के साथ खिलवाड़ किया उसे इसकी सजा भुगतनि पड़ी। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, अफगानिस्तान और म्यांमार जैसे भारत के पड़ोसी देश इसका सटीक उदाहरण है।
भारत और अमेरिका संसदा के बड़े प्रजातंत्र पसंद मुल्क हैं। ये दोनों ही पहिए लोकतंत्र की गाड़ी को आगे खींच रहे हैं। यदि ये पहिए कमजोर हुए तो लोकतंत्र खतरे में आ जाएगा।
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