26-04-2023, Wednesday
आदि शंकराचार्य के विषय पर लिखना समुद्र के सामने एक बिंदु होने के बराबर है।अलौकिक प्रतिभा, शानदार चरित्र, महान दर्शन के स्वामी शंकराचार्य ने कम उम्र में भारत की यात्रा की थी। उनका जन्म कालडी गाँव में हुआ था, केरल, लगभग पच्चीस सौ साल पहले 788 ईस्वी में। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे उन्होंने बहुत ही कम उम्र में अपने पिता का साया खो दिया था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और जिज्ञासु थे।उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदू धर्म (वैदिक धर्म) के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। वे अद्वैतवाद के प्रणेता थे। उन्होंने आठ वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया और संन्यास ग्रहण किया और गुरु की तलाश में पहाड़ों और जंगलों में भटकते रहे। अंत में वे मध्य प्रदेश के कारेश्वर ज्योतिर्लिंग में गुरु के रूप में गोविंद योगी से मिले।
शंकराचार्य ने चारों दिशाओं का भ्रमण कर चार मठों की स्थापना की और एक सूत्र से सम्पूर्ण भारतवर्ष का निर्माण किया। अर्वाचिन हिंदू विचारधारा का रूप आदि शंकराचार्य की विचारधारा की विरासत है।उन्होंने सात साल की उम्र में वेदों, 12 साल की उम्र में सभी शास्त्रों में महारत हासिल की और सोलह साल की उम्र में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य की रचना की। उन्होंने 100 से ज्यादा ग्रंथ लिखे हैं।
हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी भूमिका आदि शंकारचार्य की मानी जाती है।पौराणिक कथा के अनुसार एक बार नदी में मगरमच्छ ने उनके पांव पकड़ लिए। ऐसे में उन्होंने अपनी मां से संन्यासी जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा चाही और कहा कि आज्ञा न मिलने तक मगरमच्छ उनके पैर नहीं छोड़ेगा।बेटे के प्राणों को बचाने के लिए मां ने संन्यास की आज्ञा दे दी।शास्त्रों के अनुसार एक संन्यासी को अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं होती लेकिन आदि शंकराचार्य ने संन्यास लेने से पहले अपनी मां को दिए वचन का पालन किया।विरोध के चलते आदि शंकराचार्य ने अपने पुश्तैनी घर के सामने मां का अंतिम संस्कार किया। कहते हैं तभी से केरल के कालड़ी में घर के सामने ही अंतिम संस्कार करने की परंपरा निभाई जाती है।
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