बिखरे हुए घर को समेटने के चक्कर में वो लगातार इधर से उधर भाग रही थी। उसे जल्दी भी थी अगर देर हो गई तो नाटक में उसके पार्ट को किसी और को दे दिया जाएगा। फिर तो पूरा दिन चाय के सहारे काटना पडेगा और पति के ताने के साथ-साथ मार भी खाना पडेगा। अब तो वह एक मशीन बन गई है। देर रात तक नाटक मंडली में काम करना फिर सुबह जल्दी उठकर हाट से सामान लाकर परिवार के सभी लोगों के लिए खाना बनाना। नाटक मंडली में एक छोटा सा काम ही तो मिला है श्यामा को। सीता को डरानेवाली राक्षसी का काम। यह मंडली दूर दराज के गाँव तक अपनी “राम लीला” के लिए प्रसिद्ध है।
कुछ सालों से श्यामा इस मंडली में काम करती चली आ रही है, सीता को डरानेवाली राक्षसी का पार्ट। उसे सिर्फ एक मुखौटा पहनना पडता था। बाकी कुछ नहीं। बेढंगा शरीर, काला आबलुसी रंग, सर पर कच्चे पक्के खीचडी बाल , एक पाँव से लंगडाते हुए लम्बे- लम्बे डग भरते हुए जब वह मुखौटा पहनकर सीता को डराती तो पहली पंक्ति में बैठे बच्चे बूढ़े सब सहमकर पीछे हटने लगते।इसी के तो पैसे मिलते हैं उसे। जिसमे उसके पति का दारू और पूरे परिवार का भरण- पोषण होता है। उसके हिस्से में तो केवल गाली-गलौज और दो वक्त की दो मुट्ठीभर अन्न ही आता।
दो दिन से उसका मन कच्चा- कच्चा सा हो रहा है। नाटक मंडली में काम करनेवाली सभी औरतों ने अपने लिए कुछ न कुछ खरीदा था। किसी ने हाट से कान के झूमके, किसी ने पायल, किसी ने कंगन तो किसी ने जरी की धार वाली नायलोन की साडी खरीदी । पर उसका तो साहस ही नही हुआ पति से कुछ कहने का।
इस बार गाँव की नाटक मंडली ने कुछ नया सोचा है।दशहरे में खेल दिखाने दूरदराज के गाँव में जाएंगे। आसपास के अधिकांश लोक अब इस खेल को देखने नहीं आते। दूर जाएंगे तो पैसा भी ज्यादा मिलेगा।फिर तो थोक में पैसा मिलेगा। हर कोई तैयार हो गया पर श्यामा ने कोई जवाब नहीं दिया।घर लौटकर श्यामा चुपचाप खडी थी।रसोईघर में जाने का मन नहीं हो रहा था। एक आँख से पानी भी टपकने लगा था।
" क्यों रे श्यामा बोलती क्यों नहीं? आज खाना नहीं बनाना क्या? "
डरते - डरते उस दिन हाथ में पैसे लेकर कार्तिक के पास खडी रही। पैसो को झपट लिया उसने। " क्यों पिटी सी सूरत लेकर खडी है? "
उसकी आँखों से झरझर आसूँ झरने लगे। एक तो बच्चों को छोड़कर जाने का दुख उपर से ये डांट डपट। श्यामा हिचकी ले लेकर रोने लगी। कुछ गडबड जानकर
कार्तिक चौकन्ना हो गया।
” क्या बात है ? नौकरी से निकाल दिया क्या?”
” नाही । बाहर जाना पडेगा । दूसरे गाँव में , वहीं रहना पडेगा। “
” तो जा न , किसने रोका है तुझे? पैसे नही आएगें तो कैसे चलेगा? “
” थोक में पैसा मिलेगा एकसाथ। जितना दिन नाटक होगा उतने दिन का — “
दूसरे दिन कार्तिक संचालक के पास पहुंच गया शिकायत लेकर।
” एक तो पैसे कम देते हो, उपर से अब वो भी बन्द करना चाहते हो –‐- हम गरीब लोग हैं, अपनी मेहनत पर जीते हैं हमें तुरंत अपनी मेहनत का पैसा चाहिए। नही तो खाएंगे क्या ? हमे तो खाने के लाले पड जाएंगे। “
” अरे जा जा कितना मेहनत करता है सबको पता है। बैठे बैठे सारादिन शराब पिता रहता है , वो भी उस दिव्यांग बीबी की कमाई का। ” संचालक ने मुंह तोड जवाब दिया।
” देखो साहब मेरे मुंह न लगो । मै अपनी जोरू की कमाई की खाता हूँ इससे किसी और का क्या। ” और फिर जोर जोर से गालियाँ बकने लगा ।लोगों ने आकर बीच बचाव किया। अंत में तय हुआ कि हर सातवें दिन आकर कार्तिक पैसा ले जाएगा।
रो धोकर निर्धारित दिन को श्यामा अपने टिन के बक्से में दो रंगजली साडी को बांधकर लंगड़ाती हुई नाटक मंडली के लोगों के संग जा मिली।बच्चों से दूर जाने के दु:ख के साथ साथ कुछ नया करने के उत्साह और उमंग से भी वह फटी पड रही थी । धूल उडाती बस की धूल में जहाँ तक हो सके श्यामा ने अपने पति और बच्चों को ढूँढने की कोशिश की। पर व्यर्थ। उनको तो बस उसके कमाई के पैसों से मतलब है।
पहले दिन ही नाटक ने धूम मचा दी। दूरदराज के गाँव से लोगों का टोला नाटक देखने के लिए उमड पड रहा था। अब तो पीछे खडे बैलगाड़ियों पर भी लोग बैठकर देखने लगे थे। और उनसे भी नाटक देखने के पूरे के पूरे पैसे लिए जाते। मंडली हर रोज कुछ नए नए करने की सोचती।
श्यामा के मुखौटा पहनकर सीता को डराने के दृश्य में भी फेरबदल किया गया । मंडली ने उसके गले में बडे बडे रंगीन मोतियों की माला पहना दी । सर पर लाल , हरे और नारंगी रंग के नकली बालों का ताज पहना दिया । इससे उसका स्वरूप और भी आकर्षक बन गया। साथ ही दो बडे बडे झक्क सफेद नकली दाँतों को उसके चेहरे के दोनो ओर चिपका दिया गया। इससे तो वह एकदम से राक्षसी जैसी लगने लगी । हाथ में लाठी के बदले त्रिशूल पकडा दिया। एक पाँव में पीतल के चमचमाते घुँघरू बांधकर लंगड़ाती हुई जब वह दोनों हाथों से त्रिशूल को उपर की ओर उठाकर हिलाते हुए सीता को डराती तो पहली पंक्ति के लोग डरकर थोडा पिछे खिसक जाते
और डरने के साथ-साथ उसके अभिनय का आनंद भी लेते।
त्रिशूल के हाथ में आते ही श्यामा मे एक बदलाव आ गया था। एक अलग आत्मविश्वास से वह भर उठी । उसे लगने लगा था वह कुछ भी कर सकती है। अगर इतने लोग उससे डर रहें हो तो उसके अंदर अपार शक्ति है। वो किसी को भी डरा सकती है। दर्शकों को डराते वक्त उसके जबडे भींच जाते, आँखें उबल पडती , पति और समाज के लोगों के द्वारा किए गए उत्पीड़न और अपमान को याद करके वह बिलबिला उठती। पंक्ति में बैठा हर दूसरा आदमी उसे बेईमान और क्रूर लगता ।एक पाँव से जोर जोर से उछलने लगती और पीतल के घुँघरू अपना शोर अलग से मचाते। दर्शक चीख चिल्लाकर अपना जोश व्यक्त करते। वह भी जोश में आकर चीखने लगती।
ऐसे में गाँव की औरते नाटक मंडली के लिए दोपहर का भोजन लेकर आती। बैठती , बातें करती , फूल मालाएं पहनाती ,भोजन करवाती। तब राम ,सीता ,लक्ष्मण उनके लिए सचमुच के भगवान बन जाते। औरतें उनके पाँव धोती अपने दुखडे सुनाती । अंजुली भरभर आंसू बहाती। उनके छोडे भोजन को प्रसाद मान माथे से लगाती।
श्यामा उनको अपना तारणहार लगती। श्यामा के जैसे मजबूत बन अपने परिवार के द्वारा दिए गए कष्टों से छुटकारा पाना चाहती थी।श्यामा ने देखा कमोबेश सभी औरतों की हालत उस जैसी ही है। पति के नशे की लत से त्रस्त, अभाव के प्रहार से जरजर हो किसी आश्रय की आश से उन्मुख। उसके अंदर नई शक्ति का संचार हुआ।
श्यामा ने निश्चय कर लिया अबके कार्तिक को अपने कमाई का एक पैसा भी नहीं ले जाने देगी। उसके घर से निकलते ही बच्चों को कार्तिक ने निहाल भेज दिया था। अपने मेहनत के पैसो से कार्तिक को गुलच्छर्रे उडाने नहीं देगी। कुछ ही दिनों में कार्तिक संस्थापक से पैसे मांगने आएगा।उसने अपने को तैयार कर लिया। मजबूत बना लिया।
गाँव का मुखिया उसदिन संस्थापक से मिलने आया था तो बता रहा था, ” गाँव मे शिक्षा का बहुत अभाव है । इससे गाँव की उन्नति नही हो रही है।लोग पुराने और सडे गले विचारों मे फंसे हैं। एको स्कूले ना हीं देखिए न?” तबसे उसने ठान लिया अपने कमाई के पैसों से यहाँ पर लडकियों के लिए स्कूल बनाने में मदद करेगी।
इसमे उसका त्रिशूल उसकी मदद करेगा ।
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