गुजरात का पाटन, जिसे पहले अनिलपुर के नाम से जाना जाता था, अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन, इस शहर का सबसे बड़ा आकर्षण है रानी की वाव, जो न सिर्फ एक खूबसूरत स्मारक है, बल्कि भारतीय इंजीनियरिंग का अद्वितीय उदाहरण भी। यह वाव आज भी आधुनिक वास्तु संरचनाओं को चुनौती देती है और इतिहास के पन्नों में अपनी खास जगह रखती है।
प्रेम और स्मृति की अमर निशानी
11वीं शताब्दी में सोलंकी राजवंश की महारानी उदयमति ने अपने पति राजा भीमदेव प्रथम की स्मृति में इस अद्भुत बावड़ी का निर्माण करवाया। जहां ज्यादातर स्मारक राजाओं द्वारा रानियों के लिए बनाए गए हैं, वहीं यह वाव रानी के प्रेम और सम्मान का प्रतीक है। ये बावड़ी न सिर्फ जल प्रबंधन प्रणाली में भू जल संसाधनों के उपयोग की तकनीक का बेहतरीन उदाहरण है बल्कि भारतीय भूमिगत वास्तु संरचना का भी सबसे विकसित नमूना है। रानी की वाव सभी बावड़ियों में सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा अलंकृत है। साथ ही मारु गुजरात आर्किटेक्चर का उत्कृष्ट नमूना है।
एक उल्टा मंदिर: वास्तुकला का अनोखा नमूना
रानी की वाव का निर्माण उल्टे मंदिर की तरह किया गया है। यानी, डोम नीचे और स्तंभ ऊपर की ओर है। इसमें नीचे से ऊपर की ओर सात सीढ़ियों की कतारे है। सात मंजिला इस वाव की हर मंजिल पर बहुत ही उच्च कलाकृतियों का निर्माण किया गया है। जिन की मुख्य विषय वस्तु भगवान विष्णु के रूप और अवतार है। लगभग 70 मीटर लंबी, 23 मीटर चौड़ी, और 28 मीटर गहरी इस वाव में 500 से भी ज्यादा मुख्य कलाकृतियां और 1000 से भी ज्यादा छोटी कलाकृतियां है। इन मूर्तियों में भगवान विष्णु के 24 रूपों, और 8 अवतारों के अलावा नाग कन्या, योगिनी जैसी सुंदर अप्सराओं की कलाकृतिया भी बनाई गई है।
इन मूर्तियों की चमक देख कर ऐसा लगता है जैसे इन्हें वर्तमान समय में ही बनाया गया हो। क्या आप जानते है कि ये बावड़ी 700 सालों तक गाद में दबी रही। दरअसल, 13वीं शताब्दी में हुईं व्यतिगत परिवर्तनों के कारण वो नदी ही विलुप्त हो गई जिसके किनारे यह बावड़ी बनी थी। बताया जाता है कि भूमिगत प्लेटो के खिसकाव के कारण उस क्षेत्र में बाढ़ आ गई और बढ़ थमने के बाद यह क्षेत्र गाद में दब गया। यह गाद इतनी अधिक थी कि इसने 28 मीटर गहरी इस वाव को भी जमींदोज कर दिया। वाव के लंबे समय तक गाद में दबे रहने को ही इन मूर्तियों की चमक का कारण माना जाता है।
कैसे ढूंढी गई रानी की वाव
रानी की वाव को दोबारा ढूंढ निकालने के पीछे भी एक लंबी कहानी है। दर्शक भारतीय पुरातत्व विभाग ने 1950 के दशक के मध्य में इसका उत्खनन शुरू किया। जो लगभग 40 सालों तक जारी रहा। आखिरकार 1980 के दशक के उत्तरार्ध में पुरातत्व विभाग को सफलता हासिल हुई और फिर से ये बावड़ी अपने वर्तमान रूप में आ गई।
बताया जाता है कि वाव में पहले 292 स्तंभ थे। जिन पर यह मंजिले टिकी थी। लेकिन, अब 226 स्तंभ ही बचे है। साथ ही अब ये बावड़ी पानी का स्त्रोत भी नहीं है। पूरब से पश्चिम की ओर विस्तृत है ये कूवा, जो 10 मीटर चौड़ा, और 30 मीटर गहरा है। कहते है लगभग 50 साल पहले इस कुवे में पानी जमा रहता था। जिसमें औषधीय गुण पाए जाते थे। और इस पानी का उपयोग कई गंभीर बीमारियों के उपचार में किया जाता था। पानी में औषधीय गुण,का कारण वाव के इर्द गिर्द लगे आयुर्वेदिक पौधों को माना जाता है।
वाव में स्थित है गुप्त द्वार
वाव की आखरी सतह में एक गुप्त द्वार भी है। जिसे अब बंद कर दिया गया है। इस द्वार से एक 30 किलो मीटर लंबी सुरंग जाती थी जो बावड़ी से निकल कर सीधे सिद्धपुर नगर में निकलती थी। 22 जून 2014 को यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल तकनीक और खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध इस अनूठी वाव को यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने भारत में स्थित सभी बावड़ियों की रानी का खिताब दिया है।
900 साल पुराने इस स्मारक से कई ऐतिहासिक पहलू तो जुड़े ही है साथ ही ये स्मारक आधुनिक इंजीनियरिंग की दुनिया को चुनौती भी देता है। तो क्यों न इस बार गुजरात जा कर इस बेहद खास और अनोखी बावड़ी की सैर की जाए।
तो इस बार गुजरात यात्रा पर, रानी की वाव जरूर देखें। यह सिर्फ एक स्मारक नहीं, बल्कि प्रेम, कला और तकनीकी का अद्वितीय संगम है।
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