08 Apr. Vadodara: राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ हर किसी ने सुना ही होगा, लेकिन सभी को इसके लिखने वाले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का नाम शायद ही याद हो। राष्ट्र के लिए वंदे मातरम गीत लिखकर चट्टोपाध्याय अमर हो गए। बंगला साहित्य में जनमानस तक पैठ बनाने वालों मे शायद बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय पहले साहित्यकार थे।
आधुनिक युग में बंगला साहित्य का उत्थान 19 वीं सदी के मध्य से शुरु हुआ। इसमें राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, प्यारीचाँद मित्र, माइकल मधुसुदन दत्त, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अग्रणी भूमिका निभायी। इसके पहले बंगाल के साहित्यकार बंगला की जगह संस्कृत या अंग्रेजी में लिखना पसन्द करते थे। मगर बंकिम चंद्र ने बंगला और हिंदी दोनों में अपनी अलग ही पहचान बनाई। उनके द्वारा लिखा गया ‘वंदे मातरम’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 27 जून 1838 को उत्तरी चौबीस परगना के कंठालपाड़ा, नैहाटी में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय प्रख्यात बंगाली उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे। उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। 1857 में उन्होंने बीए पास किया। प्रेसीडेंसी कालेज से बी. ए. की उपाधि लेने वाले ये पहले भारतीय थे। शिक्षा समाप्ति के तुरंत बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर इनकी नियुक्ति हो गई। कुछ समय तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। इसके अलावा रायबहादुर और सी. आई. ई. की उपाधियाँ भी हासिल की। 1869 में कानून की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने सरकारी नौकरी कर ली और 1891 में सेवानिवृत्त हुई। 8 अप्रैल 1894 को उनका निधन हो गया।
चट्टोपाध्याय की रचनाएँ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में काम किया था। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना ‘राजमोहन्स वाइफ’ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। उनकी पहली प्रकाशित बांग्ला कृति ‘दुर्गेशनंदिनी’ मार्च 1865 में छपी थी। यह एक रूमानी रचना है। दूसरे उपन्यास कपालकुंडला (1866) को उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष (1873) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया।
कृष्णकांतेर दफ्तर में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है। आनंदमठ (1882) राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम (1886) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।
ब्रिटिश हुक्मरानों के नियम के बाद लिखा था वंदे मातरम
बंकिमचंद्र ने कलकत्ता (कोलकाता) के प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1857 में बीए किया। यह वही साल था जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली बार भारतीयों ने संगठित विद्रोह किया था। बंकिमचंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री पाने वाले पहले भारतीय थे। साल 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री ली जिसके बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर भी नियुक्त हुए। कहा जाता है कि ब्रिटिश हुक्मरानों ने ब्रिटेन के गीत ‘गॉड! सेव द क्वीन’ को हर समारोह में गाना अनिवार्य कर दिया। इससे बंकिमचंद्र आहत थे। उन्होंने 1875-76 में एक गीत लिखा और उसका शीर्षक रखा ‘वंदे मातरम’… बारीसाल में कांग्रेस के प्रांतीय अधिवेशन के बाद साल 1905 में यह गीत वाराणसी में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गीत को गाया गया। थोड़े ही समय में यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया।
रबीन्द्रनाथ टैगोर ने धुन बनाई थी
बंकिमचंद्र को उनके जीवनकाल में ‘वंदे मातरम’ गीत को ज्यादा ख्याति नहीं हासिल हुई। लेकिन, इस सच्चाई को कभी नहीं झुठलाया जा सकता कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खान जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों ने ‘वंदे मातरम’ गाते हुए ही फांसी का फंदा चूमा था। रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी खूबसूरत धुन बनाई थी। यही नहीं लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल ने भी ‘वंदे मातरम’ नाम से राष्ट्रवादी पत्रिकाएं निकाली थीं। जब आजाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब इसे राष्ट्रगीत का दर्जा नहीं दिया गया था। हालांकि, 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने ऐलान किया कि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है।
उपन्यासों का भारत की सभी भाषाओं में है इसका अनुवाद
बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी बड़े चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम और शरद और रवीन्द्र नाथ ठाकुर से भी आगे हैं। बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे।
उनके कथा एवं साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी अप्पतियों से जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग के पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखते हैं।
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